Tuesday, August 30, 2016

सतपुरुष कबीर साहिब जी महाराज


                                                             सन्मार्ग से विचलित और वास्तविक लक्ष्य से भटके हुए मानव को यथार्थ दिशा निर्देश के लिए सत्यपुरुष परमात्मा की दिव्य विभूति को धराधाम पर आना पड़ता है | १५वीं शताब्दी में, ऐसी ही दिग्भ्रमित मानवता व्याकुल हो रही थी | तत्कालीन दो मुख्य धर्मो में परस्पर असहमति व्याप्त थी | हिन्दू-मुश्लिम, पंडित-मोल्ला के वैमनस्य की आंधी फैल रही थी | आध्यात्मिक- नैतिक मूल्यों में गिरावट आ रही थी | लोग रुढियों और अन्धविश्वासो में लिप्त थे| निरकुंश सासक निरीह प्रजा



पर कहर ढा रहे थे| इसे समय में प्रसुप्त मानवता को जगाने के लिए भारत के एतिहासिक धरातल पर सतगुरु कबीर का शुभ अवतरण हुआ | संवत् १४५५ ज्येष्ट पूर्णिमा, सोमवार को मांगलिक ब्रह्ममहूर्त में, काशी के समीप, लहरतारा तलब के तट पर, स्वामी रामानंद जी के शिष्य अष्टानंद जी ध्यान में बैठे हुए थे | अचानक उन्हें आँखे खोलनी पड़ी | गगन मंडल से एक दिव्य प्रकाश पुंज तालाब में पूर्ण विकसित कमल पुष्प पर उतरा |

पलभर में वह प्रकाश पुंज बालक के रूप में परिवर्तित हो गया | प्रकाश पुंज के रूप में अवतरित वही बालक आगे चल कर सद्गुरु कबीर साहिब के नाम से जगत प्रसिद हुआ | आचार्य गरीब दास जी महाराज अपनी वाणी में फरमाते है कि:

गगन मंडल से उतरे, सद्गुरु सत्य कबीर | जलज मांहि पोढन किये, सब पीरन के पीर ||

उस दिन प्रात: निरु और नीमा नामक जुलाहा नव दंपति नीमा के मैके से काशी शहर की ओर लोट रहे थे | मार्ग में तलाब को देखकर नीमा को हाथ-मुंह धोने की इच्छा हुई | पति से पूछ कर नीमा तलाब पर गई | हाथ-मुंह धोते समय उसे नवजात बालक की किलकारियां सुनाई दी | जंहा से आवाज आ रही ठीक वँहा का द्रश्य देखते ही वह मुग्ध हो गई | उसने देखा कि “एक पूर्ण विकसित पुष्प पर अलोकिक क्रांति से युक्त अत्यंत सुकोमल शिशु किलोल कर रहा था” | उसने आगे बढ़ कर उस बालक को उठाकर ह्रदय से लगा लिया| नीमा का ह्रदय उस दिव्य बाल स्वरूप के स्पर्श से धन्य हो गया | नीरू ने सोचा कि “यह किसी का बालक होगा उसने चारो तरफ आवाज लगाई किन्तु कोई प्रत्युतर नही मिला” | नीरू की शंका मिटाने बाल स्वरूप सद्गुरु स्वम बोल पड़े:

अब हम अविगति से चलि आये | मेरा कोई भेद मर्म नहीं पाए ||

नीमा ने अपने पति नीरू को मना लिया कि “वह उस बाल स्वरूप को घर ले चलने की अनुमति दे” | दोनों बालक को घर ले आये | इस तरह नीमा और नीरू बाल-स्वरूप सद्गुरु के पालक माता-पिता बन गये |

नीरू के घर नामकरण प्रसंग

जब नीरू व नीमा बालस्वरूप सतगुरु जी को लेकर घर पहुचे तब यह बात सुनकर अनेक स्त्री-पुरुष बालस्वरूप का दर्शन करने नीरू के घर आये|उस बालक की छवि देख कर सब मन्त्र मुग्ध हो गये | फिर भी कुछ लोगो ने बालक के धर्म-जाति की पूछताछ की| नीरू ने उन्हें बताया कि “पूर्ण रूप से विकसित कमल पुष्प पर किलोल करता हुआ, यह आलोकित बालक उसे लहरतारा से प्राप्त हुआ”|शीघ्र ही नीरू ने बालक का नाम करण करने के लिए पंडित व काजियों को बुलाया | पंडित समय तिथि आदि का विचार कर नाम सोचने लगे,उधर काजी ने अपने मजहब के अनुसार कुरान खोला | तो वँहा नाम निकला “कबीर”|काजी ने बार बार किताब खोली किन्तु हर बार वही नाम निकला “कबीर”| काजी व पंडितो की असंज्मता को मिटाने के लिए बालस्वरूप सद्गुरु स्वम गम्भीर वाणी में बोल पड़े “आप लोग मेरे नाम की चिंता मत करो, मैंने आपना नाम स्वम चुन लिया है,इस कलयुग काल में कबीर के नाम से जाना जाऊंगा"| बालस्वरूप की वाणी सुनकर पंडित-काजी सब चकित रह गये| बालस्वरूप के दूध न पिने के कारण माता नीमा चिंतित थी तब सद्गुरु जी ने कहा:

पानी से पैदा नही, श्वासा नाहीं शरीर | अन्नाहार करता नहीं, ताका नाम कबीर ||

काजी पंडित व जनता को प्रथम उपदेश

समयानुसार सद्गुरु की अनेक बाल लीलाएं हुई | 11 वर्ष की अवस्था में सद्गुरु कबीर साहिब जी ने काजी पंडित और जनता को सत्य धर्म का उपदेश देना शुरू किया | जनता को सत्य, अहिंसा, एकता, विश्वबन्धुत्व का सद्गुरु जी ने उपदेश दिया | सद्गुरु जी की वाणी में प्रेम व मधुरता का ऐसा आकर्षण था की दूर-दूर से लोग उनके मधुर वचनों को सुनने के लिये आने लगे| उस प्रेममय वाणी से जनता प्रभावित होने लगी | कबीर साहिब जी कहते है कि “परमात्मा एक ही है, वह सबसे प्रेम करता है, सब उसकी संतान है | कोई ऊँच या नीच का वर्णन नही है | सबको उसकी भक्ति का समान अधिकार है” | अनेक पंडित व काजी किशोर कबीर साहिब जी के तर्को का जवाब नही दे पाये | वे सत्य को सहन नही कर सके |

कबीर साहिब जी की लोकप्रियता से जलने लगे| जब पंडितो व काजियो ने कहा कि “कबीर के कोई गुरु नही है| गुरु के बैगेर ज्ञान में कोई प्रमानिता नहीं होती”| यधपि सद्गुरु स्वम पूर्ण ज्ञान के अवतार थे | उन्हें गुरु धारण करने की कोई आवश्यकता नहीं थी फिर भी गुरु परम्परा का निर्वाह करने हेतु उन्होंने उस समय के जाने माने सन्त श्री रामानंद जी को अपना गुरु बनाने का निश्चय किया |

स्वामी रामानंद जी से गुरु दीक्षा प्राप्ति

सद्गुरु विदेह स्वरूप तथा ज्ञान स्वरूप होते हुए भी आपने मानव शरीर धारण किया | गुरु परम्परा को आदर देने के लिए कबीर साहिब जी ने एक प्रसिद वैष्णव सन्त स्वामी रामानंद जी को गुरु बनाने का निश्चय किया | कबीर साहिब जी जानते थे कि “स्वामी रामानंद जी मात्र उच्च वर्ण के लोगो को दीक्षा मन्त्र देते है” | कबीर साहिब जी ने स्वामी जी को वर्ण भेद के जाल से निकालने के लिए तथा जनकल्याण के लिए उन्हें सार्वभोम प्रतिष्ठा प्रदान करने के लिए उन्हें गुरु रूप में चुना | कबीर साहिब जी ने अपनी कार्यसिद्धि के लिए एक युक्ति रची|

एक दिन कबीर साहिब जी गंगा जी के “पंचगंगा घाट” नमक स्थान पर घाट की सीढियों पर जाकर बालस्वरूप में लेट गये | स्वामी रामानंद जी प्रतिदिन उसी स्थान पर गंगा स्नान के लिए जाया करते थे | सीढियों से उतर कर स्वामी जी उस स्थान पर आये जंहा सद्गुरु जी लेटे हुए थे | अँधेरे के करण स्वामी जी कबीर साहिब जी को न देख सके | स्वामी जी की खडाऊ कबीर साहिब जी के शरीर में लगी, बालस्वरूप रोने लगे | आवाज सुनकर स्वामी जी ने जाना कि “कोई बालक यँहा सोया हुआ है” | उन्होंने बालस्वरूप को उठा लिया और सिर पर हाथ रख कर कहने लगे कि “बेटा रो मत, राम राम कहो” | उस समय स्वामी जी के झुके होने के करण उनकी तुलसी माला कबीर साहिब जी के गले में जा गिरी | इस तरह सद्गुरु कबीर साहिब जी रामानंद जी के शिष्य बने |

सद्गुरू कबीर की समाधि
कबीर साहब की अवस्था 119 वर्श की हो चुकी थी। यद्यपि उनका शरीर वृद्ध हो गया था, परन्तु वह तेज-पुंज ज्योर्तिमान था। उनकी वाणी में ओज था। मुखमण्डल आभा, सौम्यता एवं कांति से पूर्ण था। मृत्यु के कोइ संकेत दृश्टव्य नहीं थे। एक दिन कबीर साहब ने अपने अनुयायी श्रुतिगोपाल साहब, नवाब बिजली खाँ पठान, कमाल साहब, कमाली साहिब तथा भक्तों को बुलाकर अपने देहावसान की पूर्व सूचना दी। अन्तिम उपदेश दिया और मौन हो गये। लोगों पर जैसे तुशारापात हो गया। साहब ! हमें छोड़कर न जाएं। यह आवाज चारों ओर गूंजने लगी। नारी-पुरूश, वृद्ध रोने बिलखने लगे। गुरू भाई रविदास जी (काशी), पदमावती जीसेन जी (उज्जैन), पीपाजी, धन्नाजी एंव प्रिय षिश्यों काशी नरेष वीरसिंह देव बघेल, रानी इन्द्र्रमति (उड़ीसा), महारानी कमलापति (रींवा), तत्वाजी, जीवाजी (कबीरवट-भडूच), जागु साहब, (कटक-उड़ीसा), भगवान गोस्वामी (पिथौरागढ़), ज्ञानी जी (गुजरात), धर्मदास जी साहब (बाँधवगढ़), आदि शिश्यों को आपके देहावसान की सूचना भिजवाई। माघ शुक्ल पक्ष एकादषी का दिनसन् 1548 ई. को एक विषाल पुष्प गुच्छ बनाकर उसी के भीतर कबीर साहब साधना के लिए प्रविश्ट हो गये। जब यह स्पश्ट हो गया कि कबीर साहब आत्म देह का त्याग कर गये, तो पर्ण कुटी खोली गयी। फूलों में शव की खोज होने लगी। पर शव नहीं मिला। एक ओर हिन्दु व मुस्लिम अनुयायी अपनी-अपनी विधि से जलाने व दफनाने के लिए शव प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगे और दूसरी ओर सम्प्रदायों की बीच शव का जलाने व दफनाने को लेकर कलह प्रारम्भ हो गया। सूचना पाकर रीवा राजा, काशी नरेशा वीर सिंह बघेल की सेनायें कूच कर गयीं। उधर बिजली खाँ पठान की सेनायें सज गयीं। युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गयी। वीर सिंह बघेल की धर्मपत्नी महारानी कमलापति कबीर साहब की बहुत ही आस्था सम्पन्न उपासिका थीं। उन्होंने युद्ध की सूचना सुनकर पतिदेव को पत्र लिखा:-

लिखि कमलापति रानी, सो पतिया पठाइया । मुर्दा नाहिं कबीर, सो रारि बढ़ाइया।।
प्रगट भये निज काशी में, दास कहाइया। तजि काशी गये मगहर, काहु न चिन्हिया।
मगहर गाँव गोरखपुर, साहब आइया। हिन्दु तुरक प्रबोधि के, राह चलाइया।
बिजली खाँ पठान, कपाठ लगाइया। वीर देव सिंह राय बघेल, साजि दल आइया।
देखेऊ कपाट उधारी, सो धर नहिं पाइया। रोवे नर और नारि, दोउ पछताइया।।

प्रियतम ! पर्दा हटाकर देखें, कबीर मुर्दा नहीं हैं। मिथ्या ही आप युद्ध पर आमादा हैं। पर्दा हटाकर देखा गया। शरीर नही मिला, केवल फूल और चादर प्राप्त हुए।वास्तविकता से वाकिफ दोउं दीन पष्चाताप करते रह गये। संध्या पाठ में इसी प्रसंग का वर्णन प्राप्त होता है। 17वीं सदी की कवयित्री रत्नाबाई लिखती है:-
मगहर स्थाना किया पयाना, दे परवाना जन तारी। 
उहां बलवीरा तजे शरीरा, काटन पीरा भवभारी।।

बीरसिंह देव राजा सुनि बल गाजा, सब दल साजा सम्भारी। 
वह मर्द पठाना, सुनि बलवाना, लाय कमाना करि डारी।।

सन्मुख नियराना छूटे न बाना, भय घमसाना रन भारी।
 तब गुरू ज्ञानी अन्तरजामी, अधरे बानी उच्चारी।।

तुम खोलो पर्दा है नहीं मुर्दा, युद्ध मिथ्या तुम करि डारी।
 सुनिके यह बानी अजरज मानी, देखि निशानी सिर मारी।।

मगहर में कबीर साहब के शरीर त्यागने पर दोनों दल आमने-सामने उपस्थित हो गये। घामासान युद्ध छिड़ गया। तब ज्ञानी सद्गुरू वाणी का उच्चारण कर अंधभक्त अनुयायियों को चेताया। जिस शव के लिए तुम लड़ते हो, वह मुर्दा नहीं है। पर्दा हटाकर देखा तो पष्चाताप करते रह गये। फूल एवं चादर को बांटकर दोनों ने समाधि एंव मजार बनाई। वे गुरू को तो माने, पर गुरू वाणी में अनभिज्ञ रहे। लेकिन विवेकी लोगों को लग गया कि कोई चमत्कार हुआ है और ये मिलजुल कर फूलों के बीच उस शरीर की खोज करने लगे जो धर्म के लिए चुनौती था। विशमता के लिए समता का शस्त्र था। लेकिन पुष्प और चादर के सिवा कुछ नहीं मिला। हिन्दुओं ने आधे पुष्प से समाधि बनायी और मुसलमानों ने आधे पुष्प को दफन कर मजार बनाया। दोनों स्मारक अगल-बगल विद्यमान हैं। समाधि पर मंदिर का निर्माण सन् 1520 ई. में काशी एवं रीवा के राजा राजवीर सिंह देव बघेल एवं कबीर साहब के प्रमुख शिष्य सुरति गोपाल साहब ने कराया। संत-भक्तों के लिए कबीर झोपड़ी को कबीर चैरा मठ का रूप दिया। यहाँ संत, साधक तथा आगत भक्त चिंतन-मनन हेतु ठहरते हैं। आचार्य गुरू प्रसाद साहेब ने समाधि मंदिर परिक्रमा का निर्माण सन् 1898 ई. कराया। सन् 1553 ई. में केशवदास जी भांड़ बघेल ने मंदिर का फर्ष लगवाया तथा 1899 ई. मे जलान जी ने बाहरी परिक्रमा पथ का सुन्दरीकरण करवाया।


सद्गुरू कबीर साहब का मजार:

कबीर साहब के शव के स्थान पर प्राप्त फूल एंव चादर के आधे भाग से  उनके शिष्य नवाब बिजली खाँ पठान व मस्लिम अनुयायियों ने 1518 ई. म मजार बनाई तथा इस पर रौजे का निर्माण किया। खोजी विद्धानों के अनुसार इस मूल रौजे का पुननिर्माण 63 वर्श के बाद बिजली खाँ की तीसरी पीढ़ी के नवाब फिदई खाँ ने कराया जो वर्तमान स्मारक हमारे सामने है। नवाब बिजली खाँ व फिदई खाँ की मजारें कबीर साहब के मजार के पास पूरब की तरफ बनी हुई है। मजार के ठीक बगल मंे एक कोठरी में संत कमाल साहब की मजार है। कमाल साहब कबीर साहब के शिष्य एंव पहुंचे हुए फकीर थे। इनका अहमदाबादमानिकपुरझूंसी या मगहर मे इंतकाल माना जाता है। किन्तु अन्य किसी स्थान पर इनकी समाधि प्राप्त नहीं होती। इसलिए मगहर की मजार ही कमाल साहब की मजार है। अपने एक पद में कमाल साहब अपने को मुसलमान कुल से आया बताते हैं। संत कमाली साहिब दिल्ली के बादशाह सिकन्दर लोदी के गुरू महान सूफी शेख तकी की पुत्री थीं। कहते हैं 12 वर्श की अवस्था में लम्बी बीमारी के बाद कमाली कोमा में चली गयी थीं। मृत समझकर इन्हें कब्र में दफना दिया गया था सातवें दिन कब्र से खोदकर कबीर साहब ने जीवित किया। इनकी समाधि मगहर में रौजे के पास बतायी जाती है। रौजे की सेवा पूजा करने वाले श्री साबिर हुसैन व श्री गयासुद्दीन दो भाई हैं। इनके पिता पितामह आदि मजार की सेवा पूजा पीढ़ीयों से करते आ रहे हैं। मुहल्ला करम कबीर मगहर कस्बे मे इनका पूरा परिवार रहता है। कबीर साहब को ये महान सूफी फकीर एवं एक पीर मानते हैं। रौजे पर उर्दू मे मजारे शरीफ और बाबा कबीरूद्दीन शाह का रौजा एवं हाजा बिन फजल रब्बी खुदा की मेहरबानियां यानी यह सब ईष्वर की कृपा है लिखा हुआ है। रौजे के अन्दर इतनी शान्ति एंव गम्भीरता है कि यहाँ आकर आत्मिक शान्ति पायी जाती है। यह लेख हम आपके सामने कई पुस्तकों के अध्यन के बाद प्रस्तुत कर रहे है. कई पुस्तकों से सद्गुरु जी के बारे में जानकारी एकत्रित करके यह आपके सामने प्रस्तुत किया जा रहा है.


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