Friday, October 27, 2017

सतगुरु महिमा

संसार में एक प्रभु ही सत्य है जो तीनों कालों भूतवर्तमान, भविष्य में
सत्य है और मौजूद है। वही सबका मालिक है। ऐसे सच्चे मालिक के भेद को पूर्ण
रूप से जानने वाले को वाणी में सतगुरु कहा गया है। बन्दीछोड़ गरीब दास महाराज
जी "सतगुरु" नाम की व्याख्या करते हुए वाणी उच्चारण करते हैं:-

गरीब, सतगुरू सतगुरू क्या करे, सतगुरू शब्द अतीत।
सतगुरू सोई जानिये, जहां गुण इन्द्री नहीं रीत।।
संसार में प्रत्येक प्राणी तीन गुणों में विचरता है तीनों गुणों के प्रभाव से
अलग नहीं हो सकता। तीनों गुणों के साथ पाँच विकार भी जुड़े हुए हैं जिनका
अधिक या कम प्रभाव प्रत्येक मनुष्य पर रहता है। लेकिन सतगुरु शरीर में व्याप्त 
गुण इन्द्रीय प्रभाव से परे रहते हैं। इसलिए सतगुरु उसे ही कहा जाता है जो शरीर के
 गुणों से उपर हैं अर्थात् शरीर में दिखाई देते हुए भी शरीर से पृथक हैं। ऐसे सतगुरु
 जी की महिमा गरीब दास महाराज जी उच्चारण कर रहे हैं।

सतगुरू दाता है कलि मांहीं, प्राण उधारन उतरे सांई ।।1।।
यह सतगुरु गरीबदास महाराज के मुख से निकली हुई वाणी है। इस कलियुग
के समय में जगत के मालिक सांई प्रभु ने सतगुरु जी का रूप धारण
 किया है। वह भक्ति-मुक्ति की दात देने के लिए दाता बन कर प्राणियों का 
उदहार करने हेतु प्रकट हुए हैं।

सतगुरू दाता दीन दयालं, जम किंकर के तोरै जालं ।।2।।
सतगुरु दाता जी दीन गरीब दास पर दयाल होते हैं। अपनी दयालुता करके
ऐसे दास के यमों के दुखदाई दुखदायक बन्धनों को तोड़ देते हैं।

सतगुरू दाता दया करांहीं, अगम द्वीप से सो चलि आंहीं ।।3।।
सतगुरु दाता जी प्राणियों पर दया करके अगम द्वीप जहा कोई नहीं पहुच
सकता में से चलकर संसार में प्रकट हुए हैं।

सतगुरू बिना पंथ नहीं पावै, सतगुरू मिले तो अलख लखावै ।।4।।
सतगुरु जी के बिना प्रभु की ओर जाने वाला भक्ति का मार्ग नहीं
 मिलता। सतगुरु जी के मेल-मिलाप के बिना कोई संसार सागर 
को पार नहीं कर सकता।

सतगुरू साहिब एक शरीरा, सतगुरू बिना न लागै तीरा ।।5।।
साहिब प्रभु ने ही सतगुरु बन कर शरीर धारण किया है। ऐसे सतगुरु की
कृपा बिना कोई भी प्राणी संसार सागर को पार नहीं कर सकता।

सतगुरू बान बिहंगम मारै, सतगुरू भवसागर से तारै ।।6।।
सतगुरु जी प्राणी के हहृय में उपदेश रूपी बाण मारते हैं। सतगुरु देव जी के
ऐसे उपदेश से प्राणी भवसागर पार कर जाता है।

सतगुरू बिना न पावे पैंडा, हूंठ हाथ गढ़ लीजे कैंडा ।।7।।
सतगुरु जी के बिना प्राणी को भक्ति मार्ग नहीं मिलता। इस कारण हे प्राणी!
इस संसार में तुझे साढ़े तीन हाथ का मानव शरीर मिला है। इस शरीर के साथ
सतगुरु जी की शरण प्राप्त करके अपने जन्म को सफल कर।

सतगुरू दरदबंद दरवेशा, जो मन कर हैं दूर अंदेशा ।।8।।
सतगुरु जी प्रत्येक प्राणी के दिल के दर्द को अपने आप में महसूस करने
वाले दर्दमंद दरवेश फकीर हैं। जिनके दिल में सारे संसार का दर्द है। ऐसे दयालु
सतगुरु जी जिस प्राणी पर दया करते हैं उसके मन के अन्धेरे दूर हो जाते हैं।

सतगुरू दरदबंद दरबारी, उतरे साहिब शुन्य अधारी ।।9।।
सुन्न मण्डल के निवासी साहिब ही सतगुरु का रूप धारण करके संसार में
अवतरित हुए हैं। ऐसे साहिब के दरबारी सतगुरु सभी प्राणियों के दर्द को
 महसूस करने वाले दर्दमंद सर्व हितकारी हैं।

सतगुरू साहिब अंग न दूजा, ये सरगुण वे निर्गुण पूजा ।।10।।
सतगुरु और साहिब एक रूप हैं। इन दोनों में कोई भिन्न-भेद नहीं है।
निर्गुण ब्रह्म ही सगुण रूप में सतगुरु हैं। इसलिए सतगुरु की
 पूजा साहिब की पूजा है।

दोहा: गरीब, निर्गुण सरगुण एक है, दूजा भ्रम विकार।
निर्गुण साहिब आप है, सरगुण संत विचार ।।1।।
सतगुरु गरीब दास जी कहते हैं कि निर्गुण और सगुण एक ही प्रभु के दो
रूप हैं। इन दोनों रूपों को अलग-अलग जानना समझना व्यर्थ का भ्रम है।
साहिब प्रभु स्वयं निर्गुण रूप में है और जब वे संत सतगुरु के रूप में प्रकट
 होते हैं तो वह उनका सगुण रूप है।

सतगुरू साहिब अकल अलीलं, जाके पंथ न चढ़ै पपीलं ।।11।।
सतगुरु साहिब कल्पना से रहित अति सूक्ष्म शुव तत्व है। उन्हें मिलने का
मार्ग भी अति सूक्ष्म है। जिस मार्ग पर पपील छोटी चींटी भी नहीं चल सकती।

सतगुरू की महिमा क्या गाऊ, हर्ष हर्ष चरणौं चित लाउं  ।।12।।
सतगुरु महाराज की महिमा का मैं किस तरह गायन करू! मुझे समझ नहीं
आती। बस! खुशी खुशी से अपने चित को सतगुरु जी के चरणों से जोड़ता हूं।

सतगुरू साहिब आदि अनादं, जा कूं खोजत हैं सुर साधं ।।13।।
सतगुरु साहिब जी सृष्टि के आदि हैं। सृष्टि खत्म हो जाए अंत में वही
मौजूद रहते हैं। ऐसे सतगुरु साहिब को देवता और साधक जन ध्यान लगाकर
खोजते हैं। परन्तु उनका आदि-अन्त कोई नहीं पा सका।

जो सतगुरू के शरणे आवै, आनंद घन पद मांहि समावै ।।14।।
जो प्राणी सच्चे दिल से सतगुरु जी की शरण ले लेता है उसे इतना आनन्द
 प्राप्त होता है कि मानो वह आनन्द के सागर में ही समा गया है।

सतगुरू दया करै दिल फेरे, कोटि तिमिर मिट जांहि अंधेरे ।।15।।
सतगुरु जी जब किसी प्राणी पर दया करते हैं तो उसके दिल की अवस्था
बदल जाती है जिस कारण उसके दिल में करोड़ों किस्म के संशय भ्रम दूर
होकर दिल में उजाला हो जाता है।

सतगुरू बंकनाल होय आये, शिव ब्रह्मादिक पार न पाये ।।16।।
सतगुरु जी बंकनाल अर्थात् दशम द्वार जो अति सूक्ष्म है उस मार्ग पर आते
हैं। शिव शंकर और ब्रह्मा जी भी उनका पार नहीं पा सकते।

सतगुरू बंकनाल बैराठा, सतगुरू उतरे औघट घाटा ।।17।।
सतगुरु जी का स्थान बंकनाल अर्थात् दशम द्वार में है। जो प्राणी के लिए
बहुत कठिन घाटी है। अर्थात् सतगुरु जी का मार्ग टेढ़ा-मेढ़ा कठिन और
अति सूक्ष्म है। इस मार्ग को सतगुरु जी ही पार करते हैं।

सतगुरू सार वस्तु बतलावै, पुरूष विदेही कूं दरशावै ।।18।।
सतगुरु जी जिस प्राणी पर कृपा करते हैं उसे उपदेश देकर सार-तत्व समझा
देते हें। जिस कारण उसे विदेही पुरूष पारब्रह्म प्रभु का 
दर्शन हो जाता है।

सतगुरू साहिब चुंबक रूपा, लगी टगटगी छांह न धूपा ।।19।।
जीवात्मा लोहा रूप है और सतगुरु साहिब चुम्बक रूप में हैं। जिस प्राणी
पर सतगुरु साहिब जी कृपा करते हैं उसे चुम्बक की तरह खींच कर अपने
 साथ मिला लेते हें। सतगुरु जी की कृपा का पात्र प्राणी जब उनके साथ मिल 
जाता है तो उसकी टिकटकी साहिब के चरण-कमलों में लग जाती है।
 जहां न छांव है न धूप है और सुख-दुःख से परे शान्त अवस्था है।

साहिब से सतगुरू बन आये, भाव भक्ति ले बिरद बधाये ।।20।।
साहिब प्रभु ही सतगुरु का रूप धारण कर सृष्टि में आए हैं। प्राणी के दिल
में भाव भक्ति पैदा करके उसका जन्म-मरण काट देना और सदैव के लिए 
सुख सागर में पहुंचा देना यह सतगुरु जी का नियम है।

सतगुरू सा दाता नहीं कोई, तारण तरण अधर मग जोई ।।21।।
सतगुरु जैसा संसार में कोई दाता नहीं है। अर्थात् जो दात प्राणी को सतगुरु
के पास से मिलती है ऐसी कोई अन्य नहीं दे सकता। सतगुरु जी स्वयं
 मुक्त रूप हैं और शरणागत को मुक्त करके अधर (आकाश मार्ग) 
से अपने लोक में ले जाते हैं।

सतगुरू परमधाम प्रवानी, सतगुरू ल्याये अगम निशनी ।।22।।
सतगुरु जी परमधाम सत्यलोक से साहिब जी की आज्ञा से आए हैं।
इसलिए साहिब प्रभु के लोक की निशानी सतगुरु जी लेकर आए हैं।

सतगुरू बिना सुरति नहीं पाटै, खेल मंड्या है सिर के साटै ।।23।।
सतगुरु जी की कृपा के बिना प्राणी की सुरति कभी स्थिर नहीं होती अर्थात्
प्रभु के चरणों में ध्यान नहीं लगता। सतगुरु जी की कृपा को प्राप्त करने का
 सौदा सिर के बदले में है। सतगुरु जी का खेल सिर के सौदे का
 है अर्थात् अपने आप को गंवा कर सतगुरु से मेल होता है।

सतगुरू भक्ति मुक्ति के दानी, सतगुरू बिना न छूटे खानी ।।24।।
प्राणी को भक्ति और मुक्ति का दान देने वाले सतगुरु जी हैं। सतगुरु जी के
बिना प्राणी का चार खानी अण्डज जेरज़ उदभिज स्वेदिज़ में जन्म-मरण का
चल कभी समाप्त नहीं होता।

सतगुरू शाला कर्म बतावै, सतगुरू अगम द्वीप ले जावै ।।25।।
सतगुरु जी प्राणी को शुभ कर्म बताते हैं। जिस शुभ कर्म से प्राणी 
अगमद्वीप में पहुंच जाता है।

सतगुरू अदलि बंध बैठावे, उजड़ नगरी बहुरि बसावै ।।26।।
सतगुरु जी संसार में धर्म और अदल की मर्यादा कायम करते
हैं। जो लोग बेइन्साफी और अमर्यादा के वातावरण के कारण अपने आप को
उजड़ा हुआ महसूस करते हैं सतगुरु जी के आने से वे सुखी और शान्त जीवन
व्यतीत करते हैं। सतगुरु जी के उपदेश को मानने वाला प्रत्येक प्राणी संसार में
सच्चाई और सद्भावना से जीवन व्यतीत करता है जिस कारण संसार में से
अशान्ति दूर होकर शान्ति का वातावरण बनता है। संसार के प्राणी
सुखी जीवन जीते हैं।

सतगुरू मुक्ति मालवे दानी, सतगुरू बिना ना पलटै वाणी ।।27।।
सतगुरु जी मुक्ति पदार्थ के दानी हैं। सतगुरु जी के बिना बाहर मुखी प्राणी 
अन्र्तमुखी नहीं हो सकता अर्थात् सतगुरू जी के बिना बैखरी वाणी पलट कर
परावाणी में लीन नहीं हो सकता।

सतगुरू भेदी भेद लखाई, कागा से हंसा होय जाई ।।28।।
प्रभु की भक्ति के भेद को सतगुरु जी समझाते हैं जो प्राणी सतगुरु जी के
उपदेश रूपी भेद को समझ जाता है वह काग वृति को छोड़कर हंस वृति
धारण कर लेता है।

सूरति सकल मूल महमंता, सतगुरू बिना न पावै पंथा ।।29।।
जितनी भी सृष्टि में शक्लें-सूरतें हैं उन सबका मूल प्रभु है। ऐसे मूल
रूप प्रभु का मार्ग सतगुरु जी के बिना किसी प्राणी को नहीं मिलता।

सतगुरू अधर धार अधिकारी, सतगुरू खोल्हैं स्वर्ग द्वारी ।।30।।
सतगुरु जी अधर लोक के अधिकारी अर्थात् मुख्तयार हैं इसलिए सुखसागर
 का द्वार सतगुरु जी ही खोलते हैं।

सतगुरू संख स्वर्ग से न्यारे, लिपैं छिपैं नहीं टरैं न टारे ।।31।।
असंख्य स्वर्ग लोकों से न्यारा सतगुरु जी का लोक है। उन्हें किसी भी लोक
की हद के भीतर नहीं बांधा जा सकता। जिस लोक में वह प्रकट होते हैं
उन्हें कोई छुपा नहीं सकता। सतगुरु जी जो चाहते हैं वही होता है। उनके किए
 को कोई बदल नहीं सकता अर्थात् वह समस्त सृष्टि के मालिक हैं 
उनकी रज़ा को कोई टाल नहीं सकता।

सतगुरू सकल शून्य में खेलै, भवसागर से नौका पेलै ।।32।।
सृष्टि के समस्त लोकों में सतगुरु जी का अपनी मौज से आने-जाने का
खेल है। सतगुरु जी ही मल्लाह बन कर प्राणी की नैया भवसागर से पार
लगाते हैं।

सतगुरू बिना सकल सब अंधा, सतगुरू काटै जम के फंदा ।।33।।
सतगुरु के बिना समस्त विश्व अन्धा है अर्थात् भटक रहा है। उसे सदमार्ग
दिखाई नहीं देता। सतगुरु जी ही प्राणी के यम के फंदों को काटते हैं।

सतगुरू जामन मरण मिटावैं, सतगुरू सुखसागर ले जावैं ।।34।।
सतगुरु जी जिस प्राणी पर कृपा करते हैं उसका जन्म मरण मिटाकर उसे
सुखसागर में ले जाते हैं।

सतगुरू सुखसागर की सीरी, सतगुरू बिना न बंधै धीरी ।।35।।
सतगुरु जी सुख सागर के सांझी हैं अर्थात् सतगुरु जी का सुख सागर के
साथ पक्का नाता है। सतगुरु जी के बिना प्राणी के मन में
 संतोष और शान्ति नहीं होती।

सतगुरू सुखसागर के हंसा, सतगुरू मेटत हैं कुलवंसा ।।36।।
सतगुरु जी सुखसागर के हंस हैं जिस प्राणी पर सतगुरु जी कृपा करते हैं
उसकी कुल जाति वर्ण आदि मिटा कर उसे हंस बना लेते हें अर्थात् प्राणी का जीव
पन समाप्त कर प्राणी को आत्म रूप में बदल देते हैं।

सतगुरू नीर क्षीर कूं छानैं, सतगुरू बैठे दर्स दिवानैं ।।37।।
सतगुरु जी धर्म की मर्यादा कायम करते हैं। जिस तरह हंस दूध और पानी
को अलग-अलग कर देता है इसी तरह सच और झूठ का निर्णय सतगुरु जी द्वारा
होता है। सतगुरु जी जब संसार में बिराजमान होते हैं तो उनके नूरी शरीर
 का दर्शन करके जीवात्मा मस्त हो जाती है। सतगुरु जी का
 दर्शन कर प्राणी मतवाला हो जाता है।

अकल अलील अगम अनरागी, सतगुरू मिले तास बड़भागी ।।38।।
साहिब प्रभु जो कल्पना से रहित अति सूक्ष्म और संसार की पहुच से परे है 
ऐसे प्रभु के रूप सतगुरु जी जिस प्राणी को मिल जाते हैं अर्थात् जो
 उनकी शरण ले लेता है वह प्राणी बड़ा भाग्यशाली हो जाता है।

दोहा: गरीब सतगुरू मिले संदेह सब, छूटे भ्रम बिकार ।
समर्थ का शरणा लिया, हम चाकर दरबार ।।2।।
श्री गरीबदास महाराज जी कहते हैं कि हमें ऐसे सतगुरु मिल गए हैं जिनके
मिलने से समस्त संशय विकार दूर हो गए। ऐसे समर्थ सतगुरु की शरण
लेकर हम उसके दरबार के चाकर  बन गए हैं।

सतगुरू अगम भूमि से आये, कर्म काण्ड जीव बंध छुटाये ।।39।।
सतगुरु जी अगम लोक से आए हैं। जो संसार में मानव जन्म लेकर जीव
भ्रम में पड़ कर कर्मकाण्ड में विश्वास रखता है उस पर सतगुरु जी दया करके
उसके कर्मकाण्ड और भ्रम जो उसके लिए बन्धन रूप हैं उन्हें छुड़ा कर साहिब
की भक्ति के साथ जोड़ देते हैं।

सप्त भूमि का भय नहीं कोई, दशौं दिशा एकै मग जोई ।।40।।
श्री सतगुरु जी की वाणी का कथन है कि साहिब के लोक में पहुूचने के
लिए साधक को सात सुन्न लोक पार करने पड़ते हैं जो अति कठिन मार्ग
है। मार्ग से गिरने का भय बना रहता है परन्तु जिसे सच्चे सतगुरु जी 
मिल जाते हैं उसे भक्ति के मार्ग से गिरने का कोई डर नहीं रहता। प्रभु 
को मिलने का मार्ग उसे दसों दिशाओं में दिखाई देने लगता है।

सप्त सुंनि में बिचरन लागा, दिव्य दृष्टि देख्या अनरागा ।।41।।
सतगुरु का शरणागत् सेवक सतगुरु जी की कृपा से सात शून्य लोकों 
में निशंक विचरण करता है। सतगुरु की कृपा से उसे प्रभु को देखने 
वाली दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है।

अकल अलील भूमिका भारी, सब सूरति से मूर्ति न्यारी ।।42।।
साहिब प्रभु का लोक विचार से रहित अति सूक्ष्म और विशाल है।
उस लोक में साहिब का दर्शन निराला है। संसार की समस्त शक्लों-सूरतों से
साहिब की छवि न्यारी है।

जा मूर्ति का कहूं विवेका, सतगुरू बिना कौन कूं देखा ।।43।।
साहिब का दर्शन सबसे निराला है। यह मैं निर्णय करके कहता हूं। सतगुरु
जी के बिना उस मालक के दर्शन कौन करवा सकता है अर्थात् 
कोई नहीं करवा सकता।

सिंधु शब्द में कैसे मिल हैं, बिन पग पंथी कैसे चलि हैं ।।44।।
शब्द स्वरूप समुद्र में जीवात्मा किस तरह मिल सकती है बिना पैरों के
मुसाफिर किस तरह सफर तय कर सकता है अर्थात् नहीं कर सकता।

मारग बिना चलन है तेरा, सतगुरू मेटे तिमिर अंधेरा ।।45।।
तेरा प्रभु की तरफ जाना बिन पैरों के बिन रस्ते के जाना है। उस मार्ग पर
सतगुरु जी अन्धेरा दूर करके मार्ग बताते हैं।

अपने प्राण दान जो करहीं, तन मन धन सब अर्पण धरहीं ।।46।।
जो सेवक सतगुरु जी को तन मन धन अर्पण कर देता है और अपने
प्राणात्मा के करके सतगुरु का हो जाता है।

सतगुरू संख कला दरशावै, सतगुरू अर्श विमान बिठावै ।।47।।
उसे सतगुरु जी सुरति के विमान पर बैठा कर अपने लोक ले जाते हैं और
अनेक खूबीयों से भरपूर साहिब के दर्शन करवाते हैं।

सतगुरू भवसागर के कोली, सतगुरू पार निबाहै डोली ।।48।।
सतगुरु जी भवसागर से पार करने वाले मल्लाह हैं। वह प्राणी का बेड़ा
भवसागर से पार करते हैं।

सतगुरू मादर पिदर हमारे, भवसागर के तारनहारे ।।49।।
महाराज गरीब दास जी कहते हैं कि सतगुरु जी हमारे माता-पिता हैं और
संसार सागर से पार करने वाले मल्लाह हैं।

सतगुरू सुन्दर रूप अपारा, सतगुरू तीन लोक से न्यारा ।।50।।
सतगुरु जी का रूप अति सुन्दर है उनकी सुन्दरता का कोई पार नहीं पा
सकता। तीनों लोकों में सतगुरु जी जैसा कोई नहीं है। सतगुरु जी की महिमा
 तीनों लोकों से न्यारी है।

सतगुरू परम पदारथ पूरा, सतगुरू बिना न बाजै तूरा ।।51।।
समस्त सृष्टि में जो परम तत्व मौजूद हैं सतगुरु जी उसका ही पूर्ण रूप हैं।
सतगुरु जी की कृपा के बिना प्राणी को अनहद शब्द की आवाज़ सुनाई नहीं देती।

सतगुरू आवादान कर देवैं, सतगुरू राम रसायन भेवैं ।।52।।
सतगुरु जी प्राणी को राम रूपी रसायण दे कर उसकी जीवात्मा को पवित्र
कर देते हैं अर्थात् राम नाम के सुमिरन से जोड़कर जन्म-जन्मान्तरों की
जीवात्मा पर आई मलिनता को दूर कर देते हैं।

सतगुरू पशु मानुष कर डारैं, सिध्दि देव कर ब्रह्म विचारैं ।।53।।
सतगुरू जी में इतनी समर्था है कि वह इन्सान की पशु वृत्त को बदल कर
मनुष्य वृत्त कर देते हें अर्थात् मूर्ख को नेक इन्सान बना देते हैं जिस कारण वह
 सिध्दि  शक्ति वाला देव बन कर ब्रह्म का विचार करने लग जाता है।

दोहा: गरीब ब्रह्म बिनानी होत है, सतगुरू शरणा लीन।
सूभर सोई जानिये, सब सेती आधीन ।।3।।
सतगुरु गरीबदास महाराज जी सतगुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहते
हैं कि जो प्राणी सच्चे सतगुरु जी की शरण ले लेता है वह ब्रह्म रूप हो जाता है।
सतगुरु जी की कृपा से जिसे ऐसी अवस्था प्राप्त हो जाती है उसका हहृय 
बहुत नम्रता भरपूर हो जाता है। संसार में प्रत्येक प्राणी के साथ वह 
नम्र भाव से मिलता है। इस कारण प्रभु की भक्ति से भरपूर उसे ही जानना
 चाहिए जो समस्त प्राणियों को अपने से उतम जानता हुआ अपने आपको
 सबका दास मानता है।

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