शब्द अतीत सिंधु घर कीजे । राम रसायन अमृत पीजे ॥३॥
नाभि कँवल और नासा अगरी। सोई काशी सोई मघरी ॥४॥
इला पिंगुला सुषमन द्वारा । बजर पौरि का खोल्हो तारा ॥५॥
जामन मरन मिटै इस भाँती। शब्द महल जहां सुषमन तांती ॥६॥
निज मन सेती निज मन लावै । खाखी मन की भ्रान्ति उठावै ॥७।।
परम तत्व से लावै तारी । पकरै मूल न चीन्है डारी ॥८॥
गुण इन्द्री के बीज बीजोवै । तुरिया पद में हंस समोवै ॥९॥
परसे ब्रह्म करम सब जारै । सतगुरु मिले तो हंस उबारे ॥१०॥
अकल पाट पर सतगुरु लेखा। काहे षट दल भरमै भेषा ॥११।।
मरि मरि गये मुक्ति नहीं पाई। लोक दीप कोई बिरला जाई ॥१२॥
संपट खोल समुंद्र पैरे । तेजपुंज लखि हंसा लहरें ॥१३॥
अदल बंध अनरागी सोई । दास गरीब मुक्ति यौं होई ॥१४॥
ऐसा ब्रह्म विचारो हंसा । छाडो लोक लाज कुल बंसा ॥
सद्गुरु बंदीछोड़ गरीब दास साहिब जी अपनी वाणी मे फरमा रहे हैं कि हे हंस (आत्मा)! उस ब्रह्म का विचार करो, जो सर्वोच्च सत्य है। लोक-लाज (सामाजिक प्रतिष्ठा), कुल और वंश के बंधनों को त्याग दो। यह साखी सांसारिक मोहमाया को छोड़कर आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है।
उत्पत्ति प्रलय काहे बहिये। जुगन जुगन दुःख जम का सहिये ॥
सद्गुरु जी यहाँ समझा रहे हैं कि तुम क्यों जन्म और मृत्यु के चक्र (उत्पत्ति और प्रलय) में बह रहे हो? युगों-युगों तक यम (मृत्यु) के दुःख क्यों सह रहे हो? यहां सद्गुरु जी आवागमन के चक्र से मुक्ति पाने की बात कर रहे हैं, जो अज्ञानता के कारण बार-बार होता है।
शब्द अतीत सिंधु घर कीजे । राम रसायन अमृत पीजे ॥
सद्गुरु जी यहां फरमा रहे हैं कि शब्द (ब्रह्म) के अतीत गहरे सागर में अपना घर बनाओ, जो सभी ध्वनियों से परे है। राम रूपी अमृत रसायन का पान करो। यह 'शब्द' निराकार ब्रह्म का प्रतीक है, जिसे नाद, अनाहत ध्वनि या अंतरंग अनुभव के रूप में समझा जा सकता है।
नाभि कँवल और नासा अगरी। सोई काशी सोई मघरी ॥
नाभि कमल और नासिका के अग्र भाग में ध्यान केंद्रित करो। वही काशी है, वही मगहर है। यहां शरीर के भीतर स्थित आध्यात्मिक केंद्रों की बात की गई है। काशी और मगहर पवित्र स्थान हैं, पर सद्गुरु जी कहते हैं कि असली तीर्थ यात्रा भीतर ही है।
इला पिंगुला सुषमन द्वारा । बजर पौरि का खोल्हो तारा ॥
इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के द्वार को जानो। वज्र के समान दृढ़ मुख्य द्वार (ब्रह्मरंध्र) के ताले को खोलो। यह योगिक क्रियाओं और कुण्डलिनी जागरण की ओर संकेत करता है, जिससे आध्यात्मिक ऊर्जा ऊपर की ओर उठती है।
जामन मरन मिटै इस भाँती। शब्द महल जहां सुषमन तांती ॥
यहाँ सद्गुरु जी जन्म मरण किस प्रकार मिटेंगे बता रहे हैं कि इस प्रकार जन्म और मृत्यु मिट जाएंगे। वह 'शब्द महल' है जहाँ सुषुम्ना नाड़ी एक तंतु की तरह है, जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ती है।
निज मन सेती निज मन लावै । खाखी मन की भ्रान्ति उठावै ॥
सद्गुरु जी यहां अपने मन को अपने ही मन में एकाग्र करने की प्रेरणा दे रहे हैं। यह 'खाकी' (शरीर) के मन की भ्रांति को दूर करेगा। यहां मन को वश में करने और द्वैत भाव को मिटाने की बात हो रही है।
परम तत्व से लावै तारी । पकरै मूल न चीन्है डारी ॥
बंदीछोड़ गरीब दास साहिब जी यहां आत्मा को अपने मूल स्रोत से जोड़ने का आह्वान करने की प्रेरणा दे रहे हैं। परम तत्व (परमात्मा) से अपनी चेतना की तार जोड़ो। जड़ (परमात्मा) को पकड़ो, न कि डालियों (सांसारिक मोह) को।
गुण इन्द्री के बीज बीजोवै । तुरिया पद में हंस समोवै ॥
गुणों और इंद्रियों के बीजों को समाप्त करो। हंस (आत्मा) को तुरीया पद (जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे की चौथी अवस्था) में समाहित करो। यह इंद्रियों पर नियंत्रण और आध्यात्मिक समाधि की अवस्था है।
परसे ब्रह्म करम सब जारै । सतगुरु मिले तो हंस उबारे ॥
बंदीछोड़ गरीब दास साहिब जी ने सद्गुरु की कृपा और मार्गदर्शन की महत्ता पर जोर दिया गया है, क्योंकि उनके बिना मुक्ति कठिन है। ब्रह्म का स्पर्श करने से सभी कर्म जल जाते हैं। यदि सद्गुरु मिल जाएं, तो वे आत्मा (हंस) को मुक्त कर देते हैं।
अकल पाट पर सतगुरु लेखा। काहे षट दल भरमै भेषा ॥
बंदीछोड़ गरीब दास साहिब जी ने यहां बाहरी आडंबरों को त्यागकर आंतरिक ज्ञान पर ध्यान देने की बात है। सद्गुरु का लेखा-जोखा (ज्ञान) उस 'अकाल पाट' (अविनाशी आसन/सत्ता) पर है। तुम क्यों षटदल कमल (छह चक्रों) में भटकते हो और वेशभूषा में उलझे रहते हो?
मरि मरि गये मुक्ति नहीं पाई। लोक दीप कोई बिरला जाई ॥
यह पद मुक्ति के मार्ग की दुर्लभता और उसकी प्राप्ति के लिए गहन साधना की आवश्यकता को दर्शाता है। कितने ही लोग बार-बार मरते रहे, पर उन्होंने मुक्ति नहीं पाई। ऐसे 'लोक दीप' परम्में धाम सतलोक कोई बिरला ही जा पाता है।
संपट खोल समुंद्र पैरे । तेजपुंज लखि हंसा लहरें ॥
सद्गुरु जी यहाँ आत्मज्ञान के बाद प्राप्त होने वाले परमानंद का वर्णन कर रहे हैं। अपने अंतःकरण के संपुट (ढक्कन) को खोलो और ज्ञान के समुद्र में तैर जाओ। तेज पुंज (ब्रह्मज्योति) को देखकर हंस (आत्मा) आनंदित होता है।
अदल बंध अनरागी सोई । दास गरीब मुक्ति यौं होई ॥
जो 'अदल बंध' (अडिग बंधन या पूर्ण एकाग्रता) और वैराग्य से युक्त है, वही मुक्त होता है। बंदीछोड़ गरीबदास साहिब जी कहते हैं कि मुक्ति इसी प्रकार प्राप्त होती है।
जैसी हमारी समझ है, उसके अनुरूप ही यह एक छोटा सा प्रयास है। सद्गुरु जी के आदेशानुसार हम यह प्रयत्न कर रहे हैं, क्योंकि उनकी रजा (इच्छा) के बिना कुछ भी संभव नहीं है। इस सृष्टि में सद्गुरु जी की इच्छा के बिना वृक्ष का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, यह तो ठहरा इतना बड़ा कार्य।
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