भक्ति हेत से ऊतरे, पाया हम दीदार ।।1।।
सब लोकों से उपर उतम लोक है, जिसे सत्यलोक कहते हैं। इस उतम लोक में
अदली (न्यायकर्ता) सत्यपुरूष सतगुरु कबीर साहिब जी विराजमान हैं, जो समस्त
सृष्टि के सार हैं। संसार के प्राणियों के लिए भक्ति का हित करके सतगुरु
जी इस मृत्यु लोक में उतरे। ऐसे सतगुरु का हमने दर्शन पाया।
अदली (न्यायकर्ता) सत्यपुरूष सतगुरु कबीर साहिब जी विराजमान हैं, जो समस्त
सृष्टि के सार हैं। संसार के प्राणियों के लिए भक्ति का हित करके सतगुरु
जी इस मृत्यु लोक में उतरे। ऐसे सतगुरु का हमने दर्शन पाया।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, अलल पंख की जात ।
काया माया ना उहां, नही पिंड नही गात ।।2।।
सतगुरु कबीर साहब जी हमें इस तरह मिले, जिस तरह अलल पंखी (अलल पक्षी)
अपने बच्चे को हित करके मिलता है। सतगुरु जी हमें आकाश मंडल में मिले।
उस लोक में पांच तत्वों का जड़ शरीर आदि नहीं है अर्थात्
आत्म-तत्व के माध्यम से ही हमारा मिलन हुआ है।
अपने बच्चे को हित करके मिलता है। सतगुरु जी हमें आकाश मंडल में मिले।
उस लोक में पांच तत्वों का जड़ शरीर आदि नहीं है अर्थात्
आत्म-तत्व के माध्यम से ही हमारा मिलन हुआ है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, उजल हिरंबर आदि।
भलका ज्ञान कमान का , घालत है सर सांधि ।।3।।
हमें अदली पुरूष कबीर, ऐसा सतगुरु मिला जो प्रकाश रूप और निर्मल है। उस
सतगुरु ने हमारे मन में ज्ञान रूपी कमान उपर चढ़ा कर ऐसा बाण मारा
जिससे समस्त कर्म-भ्रम नष्ट होकर मन में शुव प्रकाश प्रकट हो गया।
सतगुरु ने हमारे मन में ज्ञान रूपी कमान उपर चढ़ा कर ऐसा बाण मारा
जिससे समस्त कर्म-भ्रम नष्ट होकर मन में शुव प्रकाश प्रकट हो गया।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, सुन्न विदेशी आप।
रूम रूम प्रकाश है, दीन्हा अजपा जाप ।।4।।
सतगुरु जी कह रहे हैं कि हमें ऐसे सतगुरु मिले, जो सुन्न (शून्य) देश (सत्यलोक)
में रहते हैं। उनके रोम-रोम में प्रकाश है। ऐसे सतगुरु देव जी
ने हमें अजपा जाप का उपदेश दिया है जो बिना जपे ही हर समय
रोम-रोम में से उच्चारण होता है।
में रहते हैं। उनके रोम-रोम में प्रकाश है। ऐसे सतगुरु देव जी
ने हमें अजपा जाप का उपदेश दिया है जो बिना जपे ही हर समय
रोम-रोम में से उच्चारण होता है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, मगन किये मुसताक।
प्याला प्याया प्रेम का, गगन मंडल गरगाप।।5।।
हमें ऐसे समर्थ सतगुरु मिले कि उनके मिलने से
हम संसार को भूल कर सतगुरु
जी के प्रेम में मस्त हो गए। उन्होंने हमें ऐसा प्रेम का प्याला पिलाया
कि हमारी सुरति गगन मण्डल में लीन हो गई।
जी के प्रेम में मस्त हो गए। उन्होंने हमें ऐसा प्रेम का प्याला पिलाया
कि हमारी सुरति गगन मण्डल में लीन हो गई।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, सिंधु सुरति की सैन।
उर अंतर प्रकाशिया, अजब सुनाये बैन ।।6।।
हमें ऐसा सतगुरु मिला, जिसने सुरति शब्द का ध्यान करने का संकेत दे दिया।
इस सुरति शब्द का ध्यान करने से हमारे मन में प्रकाश हो गया।
ऐसा अनुपम उपदेश हमें सुना दिया है।
इस सुरति शब्द का ध्यान करने से हमारे मन में प्रकाश हो गया।
ऐसा अनुपम उपदेश हमें सुना दिया है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, सुरति सिंधु की सैल।
बजर पौलि पट खौल कर, ले गया झीनी गैल ।।7।।
सुरति रूपी सागर में हमें ऐसे सतगुरु मिल गए, जिन्होंने दशम द्वार में लगे हुए
पक्के द्वार (किवाड) खोल दिये और हमें अति बारीक रस्ते में से अपने धाम में ले गए।
पक्के द्वार (किवाड) खोल दिये और हमें अति बारीक रस्ते में से अपने धाम में ले गए।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, सुरति सिंधु के तीर ।
सब संतन सिरताज है, सतगुरू अदल कबीर ।।8।।
हमें सुरति रूपी सागर के किनारे पर ऐसा सतगुरु
मिल गया जिसका नाम अदली
पुरूष कबीर है। वह सब संतों का सिरताज है।
पुरूष कबीर है। वह सब संतों का सिरताज है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, सुरति सिंधु के मांहिं।
शब्द सरूपी अंग है, पिंड प्राण नहीं छाहिं।।9।।
हमें सुरति रूपी सागर में ऐसे सतगुरु मिल गए
जिनके शरीर के अंग शब्द स्वरूप हैं।
उनका शरीर, प्राण और छाया कुछ भी नहीं है अर्थात् उनका पॅच भौतिक
शरीर नहीं है बल्कि प्रकाश रूप और शब्द रूप है।
उनका शरीर, प्राण और छाया कुछ भी नहीं है अर्थात् उनका पॅच भौतिक
शरीर नहीं है बल्कि प्रकाश रूप और शब्द रूप है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, गलताना गुलजार ।
वार पार कीमत नहीं, नहीं हलका नहीं भार ।।10।।
हमें ऐसे सतगुरु मिले हैं जो सारी सृष्टि में
लीन होकर पल्लवित पुष्पों की तरह
शोभा दे रहे हें। उनका कोई उरवार-पार नहीं है। उनकी कोई कीमत नहीं पा
सकता और न ही उन्हें हल्का या भारी कहा जा सकता है। ऐसे शब्द स्वरूपी हैं सतगुरु।
शोभा दे रहे हें। उनका कोई उरवार-पार नहीं है। उनकी कोई कीमत नहीं पा
सकता और न ही उन्हें हल्का या भारी कहा जा सकता है। ऐसे शब्द स्वरूपी हैं सतगुरु।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, सुरति सिंधु के मंझ।
अंड्यों आनन्द पौष है, बैन सुनाये कुंज ।।11।।
सुरति रूपी सागर में हमें ऐसे सतगुरु मिल गए
जैसे कुंज पक्षी अपने ध्यान और
आवाज़ से बहुत दूर पड़े अण्डों को पालता है। इसी तरह सतगुरु
भी अपनी कृपा-दृष्टि के द्वारा हमारा पालन-पोषण करते हैं।
आवाज़ से बहुत दूर पड़े अण्डों को पालता है। इसी तरह सतगुरु
भी अपनी कृपा-दृष्टि के द्वारा हमारा पालन-पोषण करते हैं।
गरीब ऐसा सतगुरू हम मिल्या, सुरति सिंधु के नाल ।
पीतांबर ताखी धरयौ, बानी शब्द रिसाल ।।12।।
सुरति रूपी सागर में हमें ऐसे सतगुरु मिले हैं
जिन्होंने अपने सूक्ष्म शरीर पर
पीताम्बर (पीले कपड़े) धारण किये हैं। उनकी वाणी के शब्द प्रेम-रस से परिपूर्ण है।
पीताम्बर (पीले कपड़े) धारण किये हैं। उनकी वाणी के शब्द प्रेम-रस से परिपूर्ण है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, सुरति सिंधु के नाल।
गमन किया परलोक से, अलल पंख की चाल ।।13।।
सुरति रूपी सागर के बीच हमें ऐसे सतगुरु मिल गए
हैं जिन्होंने हमें अपने सत्लोक में
इस तरह बुला लिया है जिस तरह अलल पक्षी अपने बच्चों को सुन्न मण्डल
में अपनी सुरति के ज़ोर से बुला लेता है।
इस तरह बुला लिया है जिस तरह अलल पक्षी अपने बच्चों को सुन्न मण्डल
में अपनी सुरति के ज़ोर से बुला लेता है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, सुरति सिंधु के नाल।
ज्ञान जोग अरू भक्ति सब, दीन्ही नजर निहाल ।।14।।
सुरति रूपी सागर में हमें ऐसे सतगुरु जी मिल गए
हैं जिन्होंने ज्ञान योग और भक्ति
योग देकर अपनी दया दृष्टि से हमें निहाल कर दिया है।
योग देकर अपनी दया दृष्टि से हमें निहाल कर दिया है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, बेपरवाह अबंध।
परमहंस पूर्ण पुरूष, रोम रोम रविचन्द ।।15।।
हमें ऐसे निर्भय सतगुरु मिल गए हैं जिनके उपर
किसी की भी हकूम अथवा
प्रतिबन्ध नहीं है। ऐसे परम हंस पूर्ण पुरूष सतगुरु हैं, जिनके
रोम-रोम में सूर्य और चंद्रमा चमकते हैं।
प्रतिबन्ध नहीं है। ऐसे परम हंस पूर्ण पुरूष सतगुरु हैं, जिनके
रोम-रोम में सूर्य और चंद्रमा चमकते हैं।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, है जिन्दा जगदीश।
सुन्न विदेशी मिल गया, छत्र मुकुट है शीश ।।16।।
हमें ऐसे सतगुरु मिल गए हैं जो समस्त सृष्टि के
मालिक हैं। वे अमर हैं। इसी
कारण उनका नाम जिन्दा-जगदीश है। ऐसे सुन्नि मण्डल सत्लोक में रहने वाले
सतगुरु मिल गए हैं जिनके शीश पर छत्र और मुकुट शोभायमान हैं।
कारण उनका नाम जिन्दा-जगदीश है। ऐसे सुन्नि मण्डल सत्लोक में रहने वाले
सतगुरु मिल गए हैं जिनके शीश पर छत्र और मुकुट शोभायमान हैं।
गरीब, सतगुरू के लक्ष्ण कहूँ, मधुरे बैन विनोद ।
चार वेद षट शास्त्र, कहाँ अठारा बोध ।।17।।
ऐसे सतगुरु देव जी के गुणों का वर्णन करता हूं
जिनके वचन मधुर, रस भरपूर हैं
और आनन्द देने वाले हें। उनके ऐसे सार वचन हैं कि चार वेद, छः शास्त्र और
अठारह पुराण भी नेति-नेति कर थक जाते हैं।
और आनन्द देने वाले हें। उनके ऐसे सार वचन हैं कि चार वेद, छः शास्त्र और
अठारह पुराण भी नेति-नेति कर थक जाते हैं।
गरीब, सतगुरू के लक्षण कहूँ, अचल विहंगम चाल ।
हम अमरापुर ले गया, ज्ञान शब्द सर घाल ।।18।।
मैं सतगुरु देव जी के गुणों का वर्णन करता हूं
कि वे अचल है, स्थिर है, उनकी चाल
पक्षी की तरह तेज़ और सीधी है। ऐसे सतगुरु देव जी ने हमारे मन में ज्ञान
रूपी वाण मारकर अज्ञान का नाश कर दिया और हमें अमर लोक में ले गए।
पक्षी की तरह तेज़ और सीधी है। ऐसे सतगुरु देव जी ने हमारे मन में ज्ञान
रूपी वाण मारकर अज्ञान का नाश कर दिया और हमें अमर लोक में ले गए।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, तुरिया केरे तीर ।
भगल विद्या बानी कहैं, छानै नीर अरू क्षीर ।।19।।
हमें तुरीय अवस्था ,ज्ञानी की चतुर्थ अवस्था, में ऐसे सतगुरु मिल गए हैं जो भगल
विद्या की वाणी उच्चारण करते हैं जिससे सार और असार का ज्ञान होता है।
विद्या की वाणी उच्चारण करते हैं जिससे सार और असार का ज्ञान होता है।
गरीब, जिंदा जोगी जगतगुरू, मालिक मुरशद पीव।
काल कर्म लागै नहीं, नहीं शंका नहीं सीव ।।20।।
सतगुरु देव जी ज़िन्दा जोगी (जन्म-मरण से रहित) है कुल दुनिया के
मालिक हैं
और सबके गुरू मुर्शिद और पीव हैं उनके उपर काल और कर्म का कोई प्रभाव
नहीं होता, न ही उन्हें कोई शंका या भ्रम होता है।
और सबके गुरू मुर्शिद और पीव हैं उनके उपर काल और कर्म का कोई प्रभाव
नहीं होता, न ही उन्हें कोई शंका या भ्रम होता है।
गरीब, जिन्दा जोगी जगतगुरू, मालिक मुरशद पीर ।
दहूँ दीन झगरा मंड्या, पाया नहीं शरीर ।।21।।
सतगुरु देव जो हमेशा ज़िंदा रहने वाले जगत-गुरू, मालिक, मुर्शिद और पीर है। जब
सतगुरु कबीर साहिब जी काशी नगर को त्याग कर मगहर में अलोप होने के लिए
गए तो दोनों ही दीन (हिन्दू और मुसलमान) जो सतगुरु देव जी को गुरू
मानते थे, उनमें आपसी झगड़ा हो गया। वे उनके शरीर का अपनी-अपनी
रीति अनुसार दफन और संस्कार करने के लिए हठ कर रहे थे। परन्तु सतगुरु
देव जी का अन्त समय शरीर ही नहीं मिला। इस तरह दोनों कौमों का
झगड़ा समाप्त हो गया। दो चादरें और फूल मिले जो दोनों कौमों ने
आधे-आधे बांट लिए और अपनी-अपनी रीति अनुसार अंतिम लिया की।
सतगुरु कबीर साहिब जी काशी नगर को त्याग कर मगहर में अलोप होने के लिए
गए तो दोनों ही दीन (हिन्दू और मुसलमान) जो सतगुरु देव जी को गुरू
मानते थे, उनमें आपसी झगड़ा हो गया। वे उनके शरीर का अपनी-अपनी
रीति अनुसार दफन और संस्कार करने के लिए हठ कर रहे थे। परन्तु सतगुरु
देव जी का अन्त समय शरीर ही नहीं मिला। इस तरह दोनों कौमों का
झगड़ा समाप्त हो गया। दो चादरें और फूल मिले जो दोनों कौमों ने
आधे-आधे बांट लिए और अपनी-अपनी रीति अनुसार अंतिम लिया की।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, मालिक मुरशद पीर।
मार्या भलका भेद से, लगे ज्ञान के तीर ।।22।।
हमें ऐसा सतगुरु मिला है जो सबका मालिक है और
गुरू पीर है। उसने हमारे
मन में ऐसा भेद ज्ञान का तीर मारा जिससे हमें अपने स्वरूप का ज्ञान हो गया।
मन में ऐसा भेद ज्ञान का तीर मारा जिससे हमें अपने स्वरूप का ज्ञान हो गया।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, तेज पुंज के अंग ।
झिलमिल नूर जहूर है, रूप रेख नहीं रंग ।।23।।
हमें ऐसे सतगुरु मिले हैं जिनके शरीर के अंग
तेज पुंज के हैं। ऐसे तेज़ पुंज के
शरीर में झिलमिल-झिलमिल करता नूर झलक रहा है। ऐसे प्रकाश स्वरूप
शरीर का कोई रूप, रेखा और रंग नहीं है।
शरीर में झिलमिल-झिलमिल करता नूर झलक रहा है। ऐसे प्रकाश स्वरूप
शरीर का कोई रूप, रेखा और रंग नहीं है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, तेज पुंज की लोय।
तन मन अरपौं शीश कूँ, होनी होय सो होय ।।24।।
हमें ऐसे सतगुरु मिले हैं जो तेज़ पुंज प्रकाश
रूप हैं। ऐसे प्रकाश स्वरूप् सतगुरु को
मैं अपना तनमन धन अर्पित करता हूं। चाहे कुछ भी हो इसकी हमें कोई परवाह नहीं।
मैं अपना तनमन धन अर्पित करता हूं। चाहे कुछ भी हो इसकी हमें कोई परवाह नहीं।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, खोले बजर किवार।
अगम द्वीप कूँ ले गया, जहां ब्रह्म दरबार ।।25।।
हमें ऐसे सतगुरु जी मिल गए हैं जिन्होंने दशम
द्वार में लगे हुए बज्र किवाड़
अपनी कृपा से खोल दिए हैं और हमें सत्यलोक में पार ब्रह्म प्रभु के दरबार
में पहुंचा दिया है, जहां किसी की पहुंच नहीं है।
अपनी कृपा से खोल दिए हैं और हमें सत्यलोक में पार ब्रह्म प्रभु के दरबार
में पहुंचा दिया है, जहां किसी की पहुंच नहीं है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, खोले बजर कपाट।
अगम भूमि कूँ गम करी, उतरे औघट घाट ।।26।।
हमें ऐसा सतगुरु मिल गया है जिसने दशम-द्वार के
दरवाज़े खोल दिए हैं।
सतगुरु की कृपा से अगमलोक (जहां किसी की पहंच नहीं) में प्रविष्ट
हो गए हैं जो दुर्गम घाटी है। उसे हमने पार कर लिया है।
सतगुरु की कृपा से अगमलोक (जहां किसी की पहंच नहीं) में प्रविष्ट
हो गए हैं जो दुर्गम घाटी है। उसे हमने पार कर लिया है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, मारी ग्यासी गैन।
रोम रोम में सालती, पलक नहीं है चैन ।।27।।
हमें ऐसा सतगुरु मिल गया है जिसने ज्ञान रूपी
ज्ञयासी (एक नोकीला हथियार,
जो दुश्मन के पेट की आंतें खींच लेता है) ऐसी मारी है, जिससे हमारे रोम-रोम में
प्रभु को मिलने की तड़प इतनी ज्यादा हो गई है कि पल भर
जो दुश्मन के पेट की आंतें खींच लेता है) ऐसी मारी है, जिससे हमारे रोम-रोम में
प्रभु को मिलने की तड़प इतनी ज्यादा हो गई है कि पल भर
भी हमें उसके बिना चैन नहीं मिल रहा है।
गरीब, सतगुरू भलका खैंच करि, लाया बान जु एक ।
स्वांस उभारे सालता, पड्या कलेजे छेक ।।28।।
सतगुरु देव जी ने ज्ञान रूपी कमान से शब्द रूपी
बाण खींच कर ऐसे मारा कि
मेरे मन में छेद हो गया। अर्थात् प्रभु को मिलने की बेचैनी पैदा हो गई।
शरीर में आते जाते स्वास प्रभु को मिलने हेतु हर पल बेचैन रहने लगे।
मेरे मन में छेद हो गया। अर्थात् प्रभु को मिलने की बेचैनी पैदा हो गई।
शरीर में आते जाते स्वास प्रभु को मिलने हेतु हर पल बेचैन रहने लगे।
गरीब, सतगुरू मारया बान कसि, खैबर ग्यासी खैंच।
भरम कर्म सब जरि गये, लई कुबुधि सब ऐंच ।।29।।
सतगुरु देव जी ने शब्द स्वरूप बाण, खैबर और ग्यासी इस तरह खींच कर मारे
कि उससे मेरी सारी कुबुवि हर ली। मेरे समस्त
भ्रम और कर्म आदि दोष जल गए।
कि उससे मेरी सारी कुबुवि हर ली। मेरे समस्त
भ्रम और कर्म आदि दोष जल गए।
गरीब, सतगुरू आये दया करि, ऐसे दीन दयाल।
बंदीछोड़ बिरद तास का, जठर अग्नि प्रतिपाल ।।30।।
सतगुरु देव जी हम पर दया कर प्रकट हुए। वे ऐसे
दीन दयाल हैं जो दीन-दुखियों पर
दया करते हैं। उस सतगुरु देव जी का नाम बन्दी छोड़ है। जीव के बन्धन छुड़ाना
ही उनका बिरद है। वही माता के गर्भ में जठराग्नि से
जीव की रक्षा और पालन करते हैं।
दया करते हैं। उस सतगुरु देव जी का नाम बन्दी छोड़ है। जीव के बन्धन छुड़ाना
ही उनका बिरद है। वही माता के गर्भ में जठराग्नि से
जीव की रक्षा और पालन करते हैं।
गरीब, जठर अग्नि से राखिया, प्याया अमृत खीर ।
जुगन जुगन सतसंग है, समझ कुट्टन बेपीर ।।31।।
सतगुरु देव जी माता के गर्भ में जठराग्नि से
प्राणी की रक्षा करते हैं और अमृतमय
दूध पिला कर पालन करते हैं। हे मनमुख कुटिल प्राणी! उस सतगुरु की कृपा
को समझ जो सतगुरु युगों-युगों से तेरे सदैव अंग-संग रहते हैं। सतगुरु जी
हर प्रकार से तेरी रक्षा करते हैं। उनके चरण कंवलों का ध्यान कर।
दूध पिला कर पालन करते हैं। हे मनमुख कुटिल प्राणी! उस सतगुरु की कृपा
को समझ जो सतगुरु युगों-युगों से तेरे सदैव अंग-संग रहते हैं। सतगुरु जी
हर प्रकार से तेरी रक्षा करते हैं। उनके चरण कंवलों का ध्यान कर।
गरीब, जूनी संकट मेटि है, औंधे मुख नहीं आय।
ऐसा सतगुरू सेईये, जम से लेई छुड़ाय।।32।।
हे प्राणी! सतगुरु जीव का चैरासी लाख योनियों
का संकट समाप्त कर देते हें। फिर
वह प्राणी माता के गर्भ में उल्टा लटका हुआ जन्म नहीं लेता। ऐसे भयानक
दुःख से छुड़ा लेने वाले सतगुरु की तू शरण में आ जा। उनकी
सेवा कर। वह तुम्हें यमदूतों से भी छुड़ा लेंगे।
वह प्राणी माता के गर्भ में उल्टा लटका हुआ जन्म नहीं लेता। ऐसे भयानक
दुःख से छुड़ा लेने वाले सतगुरु की तू शरण में आ जा। उनकी
सेवा कर। वह तुम्हें यमदूतों से भी छुड़ा लेंगे।
गरीब, जम जौरा जासें डरै, धर्मराय के दूत।
चैदह कोटि न चंप हीं, सुन सतगुरू की कूत ।।33।।
सतगुरु देव जी कहते हैं कि धर्मराज के दूत यम
जौरा इत्यादि की सेना चैदह करोड़
है, वे सब सतगुरु साहिब जी से डरते हें। जो सतगुरु साहिब जी का सेवक
है, उसके मुख से सतगुरु देव जी के नाम की
गुंजार सुनकर उसके पास नहीं आते।
है, वे सब सतगुरु साहिब जी से डरते हें। जो सतगुरु साहिब जी का सेवक
है, उसके मुख से सतगुरु देव जी के नाम की
गुंजार सुनकर उसके पास नहीं आते।
गरीब, जम जौरा जासें डरैं, धर्मराय धर धीर।
ऐसा सतगुरू एक है, अदली अदल कबीर ।।34।।
यम, जौरा इत्यादि जिससे डरते हैं और धर्मराज
भी जिसके आगे
धैर्य धारण कर प्रार्थना करता है। ऐसे सतगुरु साहिब समस्त
सृष्टि में एक हैं, वे अदली पुरूष कबीर जी हैं।
धैर्य धारण कर प्रार्थना करता है। ऐसे सतगुरु साहिब समस्त
सृष्टि में एक हैं, वे अदली पुरूष कबीर जी हैं।
गरीब, जम जौरा जासें डरैं, मिटे कर्म के अंक।
कागज कीरै दरगह दई, चैदह कोटि न चंप ।।35।।
ऐसे सतगुरु कबीर साहिब से यम और उसकी सेना सब
डरते हैं। जो सतगुरु
देव जी का सेवक है, उसके कर्मों के लेख सतगुरु जी मिटा देते हैं। धर्मराज के
दरबार में चित्रगुप्त के लिखे हुए कर्मों के लेख के कागज़ सतगुरु जी फाड़ देते हैं।
देव जी का सेवक है, उसके कर्मों के लेख सतगुरु जी मिटा देते हैं। धर्मराज के
दरबार में चित्रगुप्त के लिखे हुए कर्मों के लेख के कागज़ सतगुरु जी फाड़ देते हैं।
गरीब, जम जौरा जासें डरैं, मिटे कर्म के लेख।
अदली अदल कबीर हंै, कुल के सतगुरू एक ।।36।।
यम और उसकी सेना के यमदूत जिससे डरते हैं, जो सेवक के कर्मों के लेख
मिटा देते हैं। ऐसे अदली पुरूष कबीर कुल दुनिया के मालिक हैं।
मिटा देते हैं। ऐसे अदली पुरूष कबीर कुल दुनिया के मालिक हैं।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, पहूँच्या मंझ निदान।
नौका नाम चढ़ाय कर, पार किये प्रवान ।।37।।
संसार रूपी भव सागर में डूबते हुए हमें ऐसे
खेवट सतगुरु जी मिल गए,
जिन्होंने नाम के जहाज़ पर चढ़ा कर पार कर दिया है।
जिन्होंने नाम के जहाज़ पर चढ़ा कर पार कर दिया है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, भवसागर के माहिं।
नौका नाम चढ़ाय करि, ले राखे निज ठाहिं।।38।।
संसार रूपी भवसागर में ऐसे सतगुरु हमें मिल गए
जिन्होंने नाम के जहाज
पर चढ़ा कर हमें अपने निजधाम में पहुंचा दिया है।
पर चढ़ा कर हमें अपने निजधाम में पहुंचा दिया है।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, भवसागर के बीच।
खेवट सब कूँ खेवता, क्या उत्तम क्या नीच ।।39।।
संसार रूपी भवसागर में हमें ऐसा सतगुरु मिल गया
जो भवसागर से पार करने
वाला मल्लाह है। जो इस मल्लाह के बेड़े में बैठ जाता है, चाहे वह धर्मी है,
चाहे वह पापी है, सतगुरु देव जी बिना भेदभाव के सबको पार कर देते हैं।
वाला मल्लाह है। जो इस मल्लाह के बेड़े में बैठ जाता है, चाहे वह धर्मी है,
चाहे वह पापी है, सतगुरु देव जी बिना भेदभाव के सबको पार कर देते हैं।
गरीब, चैरासी की धार में, बहे जात हैं जीव।
ऐसा सतगुरू हम मिल्या, ले परसाया पीव ।।40।।
इस संसार रूपी भवसागर में जन्म मरण रूपी चैरासी
लाख धाराएं हैं जिनमें अनेक
जीव बहते जा रहे हैं। परन्तु हमे इस संसार रूपी भवसागर में ऐसा
सतगुरु मिल गया है जिसने हमारा पीव से मेल करा दिया है।
जीव बहते जा रहे हैं। परन्तु हमे इस संसार रूपी भवसागर में ऐसा
सतगुरु मिल गया है जिसने हमारा पीव से मेल करा दिया है।
गरीब, लख चैरासी धार में, बहे जात है हंस।
ऐसा सतगुरू हम मिल्या, अलख लखाया बंस ।।41।।
इस संसार सागर में जन्म-मरण रूपी चैरासी लाख
धाराएं हैं जिसमें अनेक जीवात्मा
रूपी हंस बहे जा रहे हैं परन्तु हमें ऐसे सतगुरु मिल गए हैं, जिन्होंने हमें
अपने वंश में मिला लिया है अर्थात्, अलख पुरूष के दर्शन करा दिए हैं।
रूपी हंस बहे जा रहे हैं परन्तु हमें ऐसे सतगुरु मिल गए हैं, जिन्होंने हमें
अपने वंश में मिला लिया है अर्थात्, अलख पुरूष के दर्शन करा दिए हैं।
गरीब, माया का रस पीव कर, फूटि गये दो नैन ।
ऐसा सतगुरू हम मिल्या, बास दिया सुख चैन ।।42।।
इस संसार की माया का रस पीकर अनेक प्राणियों के
ज्ञान ओर विवेक रूपी
दो चक्षु फूट गए हैं अर्थात् माया के मद में जीव अन्धे हो गए हैं। परन्तु हमें
ऐसा सतगुरु मिल गया है जिसने इस माया के मद से छुड़ा
कर सुख शान्ति में हमारा निवास करा दिया है।
दो चक्षु फूट गए हैं अर्थात् माया के मद में जीव अन्धे हो गए हैं। परन्तु हमें
ऐसा सतगुरु मिल गया है जिसने इस माया के मद से छुड़ा
कर सुख शान्ति में हमारा निवास करा दिया है।
गरीब, माया का रस पीय कर, हो गये डामा डोल ।
ऐसा सतगुरू हम मिल्या, ज्ञान जोग दिया खोल ।।43।।
इस संसार में अनेक प्राणी माया के नशे में इस
प्रकार डामांडोल हो गए हैं
कि उन्हें अपने मालिक, प्रभु-परमात्मा की याद भूल गई है। परन्तु
हमें ऐसे सतगुरु मिल गए हैं जिन्होंने ज्ञान योग के द्वारा अपने निजधाम
का द्वार हमारे लिए खोल दिया है।
कि उन्हें अपने मालिक, प्रभु-परमात्मा की याद भूल गई है। परन्तु
हमें ऐसे सतगुरु मिल गए हैं जिन्होंने ज्ञान योग के द्वारा अपने निजधाम
का द्वार हमारे लिए खोल दिया है।
गरीब, माया का रस पीय कर, हो गये भूत खईस ।
ऐसा सतगुरू हम मिल्या, भक्ति दई बख्शीश ।।44।।
इस संसार की माया का नशा पीकर अनेक प्राणी भूत
प्रेत की जून में चले गये हैं।
परन्तु हमें ऐसे सतगुरु मिल गये हैं जिन्होंने हमें भक्ति की
बख्सीस देकर अपने निज स्रूप में मिला लिया है।
परन्तु हमें ऐसे सतगुरु मिल गये हैं जिन्होंने हमें भक्ति की
बख्सीस देकर अपने निज स्रूप में मिला लिया है।
गरीब, माया का रस पीय कर, फूट गये पट चार।
ऐसा सतगुरू हम मिल्या, लोयन संख उधार ।।45।।
इस संसार में माया का नशा पीकर अनेक प्राणियों
की दो बाहर और दो अन्दरूनी
ज्ञान, विवेक रूपी आंखें फूट गई हैं। परन्तु हमें ऐसे सतगुरु मिल गए हैं
जिन्होंने हमारे ज्ञान रूपी अनेकों दिव्य नेत्र खोल दिए हैं। जिससे
हमारा अज्ञान रूपी अन्धकार दूर हो गया है।
ज्ञान, विवेक रूपी आंखें फूट गई हैं। परन्तु हमें ऐसे सतगुरु मिल गए हैं
जिन्होंने हमारे ज्ञान रूपी अनेकों दिव्य नेत्र खोल दिए हैं। जिससे
हमारा अज्ञान रूपी अन्धकार दूर हो गया है।
गरीब, माया का रस पीय कर, डूब गये दहूं दीन।
ऐसा सतगुरू हम मिल्या, ज्ञान जोग प्रवीन ।।46।।
संसार की माया का नशा पीकर दोनों ही दीनों के
अनेकों प्राणी संसार सागर
में डूब गए हैं। परन्तु हमें ऐसे सतगुरु मिल गए हैं जो ज्ञान और योग में
पूर्णतः निपुण हैं। उनकी कृपा से हमारे उपर इस संसार
की माया का कोई प्रभाव नहीं हो सकता।
में डूब गए हैं। परन्तु हमें ऐसे सतगुरु मिल गए हैं जो ज्ञान और योग में
पूर्णतः निपुण हैं। उनकी कृपा से हमारे उपर इस संसार
की माया का कोई प्रभाव नहीं हो सकता।
गरीब, माया का रस पीय कर, गये षट् दल गारत गोर।
ऐसा सतगुरू हम मिल्या, प्रगट लिये बहोर ।।47।।
संसार की माया का नशा पीकर षट्दल ,छः भेख, भी अपने मार्ग से भटक गए हैं
परन्तु हमें ऐसे सतगुरु मिल गए हैं, जिन्होंने प्रकट होकर
हमें संसार सागर में डूबने से बचा लिया है।
परन्तु हमें ऐसे सतगुरु मिल गए हैं, जिन्होंने प्रकट होकर
हमें संसार सागर में डूबने से बचा लिया है।
गरीब, सतगुरू कूं क्या दीजिये, देने को कछु नाहिं।
समन कूं साका किया, सेऊं भेंट चढाहिं ।।48।।
ऐसे सतगुरु को हम क्या दे सकते हैं? क्योंकि हमारे पास उन्हें देने योग्य कोई वस्तु
नहीं है। सतगुरु जी के उपकार के बदले में सम्मन ने बहुत बड़ा साका
कर दिया। उसने अपने इकलौते पुत्र सेउ को भी सतगुरु की भेंट चढ़ा दिया।
नहीं है। सतगुरु जी के उपकार के बदले में सम्मन ने बहुत बड़ा साका
कर दिया। उसने अपने इकलौते पुत्र सेउ को भी सतगुरु की भेंट चढ़ा दिया।
गरीब, सिर साटे की भक्ति है, और कछु नही बात।
सिर के साटे पाईये, अविगत अलख अनाथ।।49।।
सतगुरु साहिब जी की भक्ति सिर के सोदे से ही
मिलती है। कोई अन्य पदार्थ उसकी
कीमत नहीं है। सिर का सौदा करने से ही उस अविगत अलख पुरूष को पाया
जा सकता है अर्थात् अपना अहंकार त्याग कर विनम्र उसकी भक्ति करने
से ही उसे पाया जा सकता है।
कीमत नहीं है। सिर का सौदा करने से ही उस अविगत अलख पुरूष को पाया
जा सकता है अर्थात् अपना अहंकार त्याग कर विनम्र उसकी भक्ति करने
से ही उसे पाया जा सकता है।
गरीब, शीश तुम्हारा जायेगा, कर सतगुरू कूं दान।
मेरी मेरा छाड़ दे, यौही गोय मैदान ।।50।।
हे प्राणी! तेरा शीश एक दिन चला जाएगा। अर्थात्
मौत इसे मिट्टी में मिला देगी।
इसलिए तू अपना शीश सतगुरु को दान कर दे, भाव अपना अहंकार छोड़कर सतगुरु
का सेवक बन जा। संसार के पदार्थों का ममत्व त्याग दे तभी तुझे सतगुरु की
भक्ति प्राप्त होवेगी। इस संसार रूपी मैदान में इस प्रकार
की रहनी से ही जीत प्राप्त होगी।
इसलिए तू अपना शीश सतगुरु को दान कर दे, भाव अपना अहंकार छोड़कर सतगुरु
का सेवक बन जा। संसार के पदार्थों का ममत्व त्याग दे तभी तुझे सतगुरु की
भक्ति प्राप्त होवेगी। इस संसार रूपी मैदान में इस प्रकार
की रहनी से ही जीत प्राप्त होगी।
गरीब, शीश तुम्हारा जायेगा, कर सतगुरू की भेंट।
नाम निरंतर लीजिये, जम की लगै न फेंट ।।51।।
हे प्राणी! तेरा शीश एक दिन चला जाएगा, मौत हो जाएगी। इसको लेखे में लगाने
के लिए पहले ही सतगुरू की भेंट चढ़ा दे अर्थात् अपने अहंकार को त्याग
कर सतगुरू साहिब का नाम लगातार जप ले। इससे यमों की मार से बच जाएगा।
के लिए पहले ही सतगुरू की भेंट चढ़ा दे अर्थात् अपने अहंकार को त्याग
कर सतगुरू साहिब का नाम लगातार जप ले। इससे यमों की मार से बच जाएगा।
गरीब, साहिब से सतगुरू भये, सतगुरू से भये साध।
ये तीनो अंग एक है, गति कुछ अगम अगाध ।।52।।
सतगुरू गरीब दास महाराज जी फरमाते हैं कि कुल
मालिक साहिब ने ही सतगुरू जी
का रूप धारण किया है और सतगुरू जी ही सत्यवादी साधू बन कर आए हैं। ये
तीनों स्वरूप अलग-अलग होते हुए भी एक ही रूप में हैं। इन तीनों की गति
अपरम्पार है। इनकी महिमा को जानना बहुत कठिन है।
का रूप धारण किया है और सतगुरू जी ही सत्यवादी साधू बन कर आए हैं। ये
तीनों स्वरूप अलग-अलग होते हुए भी एक ही रूप में हैं। इन तीनों की गति
अपरम्पार है। इनकी महिमा को जानना बहुत कठिन है।
गरीब, साहिब से सतगुरू भये, सतगुरू से भये संत।
धर धर भेष विशाल अंग, खेलैं आदि अरू अंत ।।53।।
साहिब प्रभु ने ही सतगुरू जी का रूप धारण किया
है और सतगुरू ही सन्त रूप में
आए हैं। साहिब बारम्बार ऐसे रूप धारण कर सृष्टि के आदि से लेकर अंत तक
आते जाते रहते हैं। सृष्टि में प्रभु का ऐसा ही खेल है।
आए हैं। साहिब बारम्बार ऐसे रूप धारण कर सृष्टि के आदि से लेकर अंत तक
आते जाते रहते हैं। सृष्टि में प्रभु का ऐसा ही खेल है।
गरीब, ऐसा सतगुरू सेईये, बेग उतारे पार।
चैरासी भ्रम मेट हीं, आवा गवन निवार ।।54।।
ऐसे सतगुरू की सेवा और उपासना करो, जो तुरंत संसार सागर से पार उतार दे।
चैरासी लाख योनियों के चक्कर को समाप्त करके अर्थात्
जन्म-मरण का दुःख समाप्त कर दे।
चैरासी लाख योनियों के चक्कर को समाप्त करके अर्थात्
जन्म-मरण का दुःख समाप्त कर दे।
गरीब, अंधे गूंगे गुरू घनें, लंगड़े लोभी लाख।
साहिब से परचे नहीं, काब बनावैं साख ।।55।।
संसार में ढोंग रचने वाले अन्धे, गूंगे, लंगड़े और लोभी लाखों गुरू बने हुए हैं
अर्थात् ज्ञान और विवेक से खाली हैं। जिनका साहिब प्रभु से कभी मेल
नहीं हुआ। केवल दोहे, साखियाॅ बोल कर सुनाते हैं।
अर्थात् ज्ञान और विवेक से खाली हैं। जिनका साहिब प्रभु से कभी मेल
नहीं हुआ। केवल दोहे, साखियाॅ बोल कर सुनाते हैं।
गरीब, ऐसा सतगुरू सेईये, शब्द समाना होय।
भवसागर में डूबते, पार लंघावै सोय ।।56।।
ऐसे सतगुरू साहिब की सेवा-उपासना करनी चाहिए जो
बह्म शब्द में लीन रहता हो।
ऐसे सतगुरू ही संसार सागर में डूबते हुए प्राणी को पार लगा सकते हैं।
ऐसे सतगुरू ही संसार सागर में डूबते हुए प्राणी को पार लगा सकते हैं।
गरीब, ऐसा सतगुरू सेईये, सोहं सिन्धु मिलाप।
तुरिया मध्य आसन करैं, मेटंै तीन्यू ताप ।।57।।
ऐसे सतगुरू की सेवा-उपासना करनी चाहिये जो
सुरति-शब्द का मेल करा दें और
तुरीया (ज्ञान की चतुर्थ अवस्था) में पहुंचा दे। चार अवस्थाएं इस प्रकार हैं -
(जागृत, स्वप्न, गहन निद्रा और तुर्रीया जो सदैव ज्ञानमय अवस्था है) आदि
दैविक, आदि भौतिक और आदिआत्म तीनों ताप मिटा दें।
तुरीया (ज्ञान की चतुर्थ अवस्था) में पहुंचा दे। चार अवस्थाएं इस प्रकार हैं -
(जागृत, स्वप्न, गहन निद्रा और तुर्रीया जो सदैव ज्ञानमय अवस्था है) आदि
दैविक, आदि भौतिक और आदिआत्म तीनों ताप मिटा दें।
गरीब, तुरिया पर पुरिया महल, पारब्रह्म का देश।
ऐसा सतगुरू सेईये, शब्द विज्ञाना नेश ।।58।।
सतगुरू जी कहते हैं कि तुरीया से आगे पांचवीं
अवस्था तुरीयातीत अवस्था है जिसमें
पहुंच कर प्राणी उस पारब्रह्म के देश में पहुंच जाता है। इसे सतगुरू जी ने
पुरीय (पूर्ण) अवस्था कहा है। ऐसे सतगुरू जी की शरण लेनी चाहिए
जो ब्रह्म शब्द में लीन रहता हो। ऐसे सतगुरू की कृपा से ही
प्राणी पारब्रह्म के देश में पहुॅच सकता है।
पहुंच कर प्राणी उस पारब्रह्म के देश में पहुंच जाता है। इसे सतगुरू जी ने
पुरीय (पूर्ण) अवस्था कहा है। ऐसे सतगुरू जी की शरण लेनी चाहिए
जो ब्रह्म शब्द में लीन रहता हो। ऐसे सतगुरू की कृपा से ही
प्राणी पारब्रह्म के देश में पहुॅच सकता है।
गरीब, तुरिया पर पुरिया महल, पारब्रह्म का धाम।
ऐसा सतगुरू सेईये, हंस करै निहकाम।।59।।
तुरीया से आगे तुरियातीत अवस्था में ही
पारब्रह्म का धाम है। ऐसे सतगुरू की
शरण लेनी चाहिए जो प्राणी को सब इच्छाओं से
रहित करके पारब्रह्म के धाम में ले जाएं।
शरण लेनी चाहिए जो प्राणी को सब इच्छाओं से
रहित करके पारब्रह्म के धाम में ले जाएं।
गरीब, तुरिया पर पुरिया महल, पारब्रह्म का लोक।
ऐसा सतगुरू सेईये, हंस पठावै मोख ।।60।।
तुरीया से उपर तुरीयातीत अवस्था में ही प्राणी
पारब्रह्म के लोक में जाता है।
हमें ऐसे सतगुरू की शरण लेनी चाहिए जो जीव को जन्म-मरण के
चक्कर से छुड़ा कर मोक्ष की पदवी हासिल करा देवे।
हमें ऐसे सतगुरू की शरण लेनी चाहिए जो जीव को जन्म-मरण के
चक्कर से छुड़ा कर मोक्ष की पदवी हासिल करा देवे।
गरीब, तुरिया पर पुरिया महल, पारब्रह्म का दीप।
ऐसा सतगुरू सेईये, राखै संग सनीप ।।61।।
तुरीया से आगे तुरीयातीत अवस्था में ही प्राणी
पारब्रह्म के द्वीप में पहुंचता है।
इसलिए जिज्ञासू को ऐसे सतगुरू की शरण लेनी चाहिए
जो प्राणी को सदैव अंग संग रखे।
इसलिए जिज्ञासू को ऐसे सतगुरू की शरण लेनी चाहिए
जो प्राणी को सदैव अंग संग रखे।
गरीब, गगन मंडल गादी जहां, पारब्रह्म अस्थान।
सुन्नि शिखर के महल में, हंस करैं विश्राम।।62।।
गगन मण्डल, जिसे सुन्न मण्डल या सत्यलोक कहते है, वही पारब्रह्म प्रभु का
स्थान है। वही सुन्न (शून्य) शिखिर अर्थात् सत्लोक प्रभु का महल है जो मालिक
का सिंहासन है। सतगुरू की शरण लेने वाले हंस इस लोक
में सुख और शान्ति प्राप्त करते हैं।
स्थान है। वही सुन्न (शून्य) शिखिर अर्थात् सत्लोक प्रभु का महल है जो मालिक
का सिंहासन है। सतगुरू की शरण लेने वाले हंस इस लोक
में सुख और शान्ति प्राप्त करते हैं।
गरीब, सतगुरू पूर्णब्रह्म हैं, सतगुरू आप अलेख।
सतगुरू रमता राम हैं, यामैं मीन न मेख ।।63।।
श्री गरीबदास महाराज जी कहते हैं कि सतगुरू जी
ही पूर्ण ब्रह्म हैं। सतगुरू
जी ही स्वयं आलेख पुरूष हैं। सतगुरू जी ही सारे संसार में राम रूप में रमे
हुए हैं। इसमें मीन-मेख (किन्तु-परन्तु) के लिए कोई स्थान नहीं।
जी ही स्वयं आलेख पुरूष हैं। सतगुरू जी ही सारे संसार में राम रूप में रमे
हुए हैं। इसमें मीन-मेख (किन्तु-परन्तु) के लिए कोई स्थान नहीं।
गरीब, सतगुरू आदि अनादि हैं, सतगुरू मध्य हैं मूल।
सतगुरू कूं सिजदा करूं, एक पलक नहीं भूल ।।64।।
सतगुरू देव जी ही आदि सनातन हैं। सतगुरू देव जी
ही अनादि हैं। सृष्टि के मध्य
में भी सतगुरू जी ही बिराजमान हैं। सृष्टि का मूल भी वही है। ऐसे सतगुरू देव
जी को मैं एक पल के लिए भी नहीं भूलता हुआ सदैव उन्हें नमस्कार करता हूं।
में भी सतगुरू जी ही बिराजमान हैं। सृष्टि का मूल भी वही है। ऐसे सतगुरू देव
जी को मैं एक पल के लिए भी नहीं भूलता हुआ सदैव उन्हें नमस्कार करता हूं।
गरीब, पट्टन घाट लखाईयाँ, अगम भूमि का भेद।
ऐसा सतगुरू हम मिल्या, अष्ट कमल दल छेद।।65।।
हमें ऐसा सतगुरू मिल गया है जिसने शरीर के अष्ट
कमलों का छेदन कर
दशम द्वार के मार्ग अगमभूमि का भेद बता दिया है। जिस कारण हमने
उस उतम लोक को देख लिया है।
दशम द्वार के मार्ग अगमभूमि का भेद बता दिया है। जिस कारण हमने
उस उतम लोक को देख लिया है।
गरीब, पट्टन घाट लखाईया, अगम भूमि का भेव।
ऐसा सतगुरू हम मिल्या, अष्ट कमल दल सेव ।।66।।
हमें ऐसा सतगुरू मिल गया है जिसने शरीर के अष्ट
कमलों का छेदन कर
दशम द्वार के मार्ग अगमभूमि का भेद बता दिया है। जिस कारण हमने
उस उतम लोक को देख लिया है।
दशम द्वार के मार्ग अगमभूमि का भेद बता दिया है। जिस कारण हमने
उस उतम लोक को देख लिया है।
गरीब, प्रपट्टन की पीठ में , सतगुरू ले गया मोहि।
सिर साटे सौदा हुआ, अगली पिछली खोहि ।।67।।
सतगुरू जी मुझे प्रपट्टन (उतम नगर) के पीठ (बाजार) में ले गए। उस बाज़ार
में मेरे सिर का सौदा हो गया। सिर के सौदे से अगले-पिछले सारे कर्म नष्ट
हो गए और मैं मोक्ष का अधिकारी बन गया।
में मेरे सिर का सौदा हो गया। सिर के सौदे से अगले-पिछले सारे कर्म नष्ट
हो गए और मैं मोक्ष का अधिकारी बन गया।
गरीब, प्रपट्टन की पीठ में, सतगुरू लें गया साथ।
जहां हीरे मानिक बिकंै, पारस लाग्या हाथ ।।68।।
महाराज जी कहते हैं कि उस उतम लोक के बाजार में
सतगुरू देव जी मुझे
अपने साथ ले गए, जहां हीरे और माणिक (ज्ञान, विवक) बिक रहे थे। हमें सिर
के बदले में पारस हाथ लग गया अर्थात् उस सौदे ने हमें जीव से ब्रह्म बना दिया।
अपने साथ ले गए, जहां हीरे और माणिक (ज्ञान, विवक) बिक रहे थे। हमें सिर
के बदले में पारस हाथ लग गया अर्थात् उस सौदे ने हमें जीव से ब्रह्म बना दिया।
गरीब, प्रपट्टन की पीठ में, है सतगुरू की हाट।
जहां हीरे मानिक बिकैं, सौदागर स्यूं साट ।।69।।
उस उतम नगर के बाज़ार में सतगुरू जी की दुकान
लगी हुई है। उस दुकान में नाम
और प्रेम रूपी हीरे मोती बिकते हैं। जीव रूपी सौदागर अपने सिर के
बदले में उसका सौदा करते हैं।
और प्रेम रूपी हीरे मोती बिकते हैं। जीव रूपी सौदागर अपने सिर के
बदले में उसका सौदा करते हैं।
गरीब, प्रपट्टन की पीठ में, सौदा है निज सार।
हम कूँ सतगुरू ले गया, औघट घाट उतार ।।70।।
उस उतम लोक के बाजार में आत्मतत्व की प्राप्ति
रूपी सार सौदा बिकता है। हमें
सतगुरू देव जी कठिन रास्ते में से बड़ी आसानी से पार ले गए। अर्थात् हमें
सतगुरू देव जी की कृपा से आत्म साक्षात्कार हो गया।
सतगुरू देव जी कठिन रास्ते में से बड़ी आसानी से पार ले गए। अर्थात् हमें
सतगुरू देव जी की कृपा से आत्म साक्षात्कार हो गया।
गरीब, प्रपट्टन की पीठ में, प्रेम प्याले खूब।
जहां हम सतगुरू ले गया, मतवाला महबूब ।।71।।
उस उतम लोक के बाज़ार में अमृत के बहुत प्याले
भरे हुए हैं, जिन्हें पी कर प्रभु का
प्यार मन में जग जाता है। उतम लोक के दरबार में हमारा
मतवाला महबूब सतगुरू हमें ले गया।
प्यार मन में जग जाता है। उतम लोक के दरबार में हमारा
मतवाला महबूब सतगुरू हमें ले गया।
गरीब, प्रपट्टन की पीठ में, मतवाले मस्तान।
हम कूँ सतगुरू ले गया, अमरापुर अस्थान ।।72।।
उस उतम नगर के बाजार में प्रेम के प्याले पीकर
प्राणी मस्त होकर झूम रहे हैं। हमारा
सतगुरू हमें ऐसे ही अमरापुरी स्थान में ले गया। सतगुरू गरीबदास महाराज
जी आगे की छः साखियों में आन्तरिक योग लिया का वर्णन करते हैं
सतगुरू हमें ऐसे ही अमरापुरी स्थान में ले गया। सतगुरू गरीबदास महाराज
जी आगे की छः साखियों में आन्तरिक योग लिया का वर्णन करते हैं
गरीब, बंकनाल के अंतरे, त्रिवैणी के तीर।
मानसरोवर हंस है, बानी कोकिल कीर ।।73।।
बंकनाल (टेढ़ी नाड़ी) अर्थात् मेरूदण्ड नाड़ी के भीतर और त्रिवेणी (इला, पिंगला, सुष्मना)
के किनारे जब जिज्ञासू साधक की सुर्ति और प्राण स्थिर होते हैं, त्रिकुटी रूपी
मानसरोवर के किनारे जब जीव रूपी हंस पहंचता है उस स्थान पर कोयल
और तोते आदि पक्षियों की आवाज जैसी प्यारी वाणी सुनाई देती है।
के किनारे जब जिज्ञासू साधक की सुर्ति और प्राण स्थिर होते हैं, त्रिकुटी रूपी
मानसरोवर के किनारे जब जीव रूपी हंस पहंचता है उस स्थान पर कोयल
और तोते आदि पक्षियों की आवाज जैसी प्यारी वाणी सुनाई देती है।
गरीब, बंकनाल के अंतरे, त्रिवैणी के तीर ।
जहां हम सतगुरू ले गया, चुवै अमीरस छीर ।।74।।
सतगुरू देव जी हमें बंकनाल के अंदर और त्रिवेणी
के तट पर ले गए
जहां सदैव अमृत रस टपकता है।
जहां सदैव अमृत रस टपकता है।
गरीब, बंकनाल के अंतरे, त्रिवैणी के तीर ।
जहंा हम सतगुरू ले गया, बन्दीछोड़ कबीर ।।75।।
बन्दीछोड़ गरीबदास साहिब जी कहते हैं कि सतगुरू
बंदीछोड़ कबीर साहिब जी हमें
बंकनाल के अंदर और त्रिवेणी के तट पर ले गए जहां सदैव अमृत रस टपकता है।
बंकनाल के अंदर और त्रिवेणी के तट पर ले गए जहां सदैव अमृत रस टपकता है।
गरीब, भँवर गुफा में बैठ करि, अभी महारस जोख।
ऐसा सतगुरू मिल गया, सौदा रोकम रोक ।।76।।
हमें ऐसा सतगुरू मिल गया है जो भंवर गुफा में
बैठकर अमृतरस तौल रहा है। जिस
अमृत को पीकर प्राणी का जन्म-मरण कट जाता है। इस अमृत का सौदा, जो कि
सिर के बदले में मिलता है, यह नगद का सौदा है इसमें उधार नहीं है।
अमृत को पीकर प्राणी का जन्म-मरण कट जाता है। इस अमृत का सौदा, जो कि
सिर के बदले में मिलता है, यह नगद का सौदा है इसमें उधार नहीं है।
गरीब, भँवर गुफा में बैठ करि, अमी महारस तोल।
ऐसा सतगुरू मिल गया, बजर पौलि दई खोल ।।77।।
हमें ऐसे सतगुरू मिल गए हैं जिन्होंने दशम
द्वार के सख्त किवाड़ खोल दिए हैं।
उस भंवर गुफा में बैठकर सतगुरू अमृत महारस तोलते हैं भाव
प्राण-आत्मा को अमृत महारस पिलाते हैं।
उस भंवर गुफा में बैठकर सतगुरू अमृत महारस तोलते हैं भाव
प्राण-आत्मा को अमृत महारस पिलाते हैं।
गरीब, भँवर गुफा में बैठ करि, अमी महारस जोख।
ऐसा सतगुरू मिल गया, ले गया हम परलोक ।।78।।
भंवर गुफा (दशम द्वार) में बैठकर सतगुरू जी अमृत रस तौल रहे हैं ऐसे सतगुरू
हमें मिल गए जो हमें उतम लोक (सत्यलोक) में ले गए हैं।
हमें मिल गए जो हमें उतम लोक (सत्यलोक) में ले गए हैं।
गरीब, पिंड ब्रह्मंड से अगम है, न्यारी सिन्धु समाधि।
ऐसा सतगुरू मिल गया, देख्या अगम अगाध ।।79।।
महाराज जी कहते हैं कि सुरति और शब्द का मिलाप, जिसके द्वारा समाधि लगती है,
वह शरीर और संसार से परे है। हमें ऐसे सतगुरू मिल गए हैं जिनकी कृपा
से हम अगम-अगाध प्रभु को देख लिया है।
वह शरीर और संसार से परे है। हमें ऐसे सतगुरू मिल गए हैं जिनकी कृपा
से हम अगम-अगाध प्रभु को देख लिया है।
गरीब, पिंड ब्रह्मंड से अगम है, न्यारी सिन्धु समाधि।
ऐसा सतगुरू मिल गया, दिया अखै प्रसाद ।।80।।
सुरति शब्द के योग से समाधि लगती है, वह शरीर और संसार से परे है। हमें ऐसे
सतगुरू मिल गए हैं जिन्होंने मोक्ष पद रूपी कभी भी समाप्त न होने वाला
प्रशाद हमें दिया है।
सतगुरू मिल गए हैं जिन्होंने मोक्ष पद रूपी कभी भी समाप्त न होने वाला
प्रशाद हमें दिया है।
गरीब, औघट घाटी ऊतरे, सतगुरू के उपदेश।
पूर्ण पद प्रकाशिया, ज्ञान जोग प्रवेश।।81।।
सतगुरू जी के उपदेश से हमने दुर्गम घाटी को पार
कर लिया है। सतगुरू देव जी
के उपदेश रूपी ज्ञान योग से हमारे मन में पूर्ण पारब्रह्म
का प्रकाश हमें दिखाई दे रहा है।
के उपदेश रूपी ज्ञान योग से हमारे मन में पूर्ण पारब्रह्म
का प्रकाश हमें दिखाई दे रहा है।
गरीब, सुन्न सरोवर हंस मन, न्हाया सतगुरू भेद।
सुरति निरति परचा भया, अष्ट कमल दल छेद।।82।।
सुन्न मण्डल में जो अमृत सरोवर है, उसमें हमारे हंस रूपी मन ने सतगुरू द्वारा
बताई गई युक्ति के साथ स्नान किया है। शरीर के आठों कमलों का छेदन
करके ही सुरति-निरत द्वारा पारब्रह्म का दर्शन पाया जाता है।
बताई गई युक्ति के साथ स्नान किया है। शरीर के आठों कमलों का छेदन
करके ही सुरति-निरत द्वारा पारब्रह्म का दर्शन पाया जाता है।
गरीब, सुंनि बेसुंनि से अगम है, पिंड ब्रह्मंड से न्यार।
शब्द समाना शब्द में, अविगत वार न पार ।।83।।
वह पारब्रह्म प्रभु सुन्न और बेसुन्न से भी परे
है। शरीर और संसार से भी न्यारा है।
शब्द भी शब्द में समा जाता है परन्तु अविगत पुरूष का
कोई पार नहीं है। शब्द से भी परे है।
शब्द भी शब्द में समा जाता है परन्तु अविगत पुरूष का
कोई पार नहीं है। शब्द से भी परे है।
गरीब, सतगुरू कूं कुरबान जां, अजब लखाया देश।
पार ब्रह्म प्रवान है, निरालंभ निज नेश ।।84।।
मैं ऐसे सतगुरू से कुर्बान जाता हूं जिसने कृपा
करके मुझे निराला ही देश दिखा दिया है।
जहां पारब्रह्म प्रभु बिना आधार के अपने आप में लीन होकर बिराज रहे हैं।
जहां पारब्रह्म प्रभु बिना आधार के अपने आप में लीन होकर बिराज रहे हैं।
गरीब, सतगुरू सोहं नाम दे, गुझ बीरज विस्तार।
बिन सोहं सीझै नही, मूल मंत्र निज सार ।।85।।
सतगुरू देव जी ही जिज्ञासु को एक गुप्त मंत्र
समझाते हैं कि हे हंस! यही मूल
मंत्र सार है। इस सोहं को समझे बिना आत्म तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती।
यह सिर्फ गुरू के द्वारा ही समझा जा सकता है।
मंत्र सार है। इस सोहं को समझे बिना आत्म तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती।
यह सिर्फ गुरू के द्वारा ही समझा जा सकता है।
गरीब, सोहं सोहं धुन लगै, दर्द बन्द दिल माहिं।
सतगुरू परदा खोल्हीं, परा लोक ले जाहिं ।।86।।
बन्दीछोड़ गरीबदास साहिब जी कहते हैं कि गुरूमुख
से सुनकर जिसके दिल
में सोहं-सोहं की धुनि लग जाती है और प्रभु को मिलने का दिल में दर्द पैदा
हो जाता है। ऐसे प्रेमी सेवक के लिए सतगुरू परलोक जाने का द्वार खोल देते
हैं अर्थात् ऐसा नाम का जप करने वाला सेवक सतगुरू के लोक में पहुंच जाता है।
में सोहं-सोहं की धुनि लग जाती है और प्रभु को मिलने का दिल में दर्द पैदा
हो जाता है। ऐसे प्रेमी सेवक के लिए सतगुरू परलोक जाने का द्वार खोल देते
हैं अर्थात् ऐसा नाम का जप करने वाला सेवक सतगुरू के लोक में पहुंच जाता है।
गरीब, सोहं जाप अजाप है, बिन रसना होई धुन्न।
चढे महल सुख सेज पर, जहां पाप नही पुन्न।।87।।
सोहं बीज मंत्र का जाप अजपा जाप है अर्थात्, इसे जपने हेतु जिह्वा हिलाने की
ज़रूरत नहीं पड़ती। यह स्वास की गति द्वारा सुर्ति की धुनि से जपा जाता है।
ऐसा अजपा जप करने वाला हंस सुख सागर के महल में पहुंच जाता है जहां न
कोई पाप है न कोई पुण्य है अर्थात् मुक्त लोक है।
ज़रूरत नहीं पड़ती। यह स्वास की गति द्वारा सुर्ति की धुनि से जपा जाता है।
ऐसा अजपा जप करने वाला हंस सुख सागर के महल में पहुंच जाता है जहां न
कोई पाप है न कोई पुण्य है अर्थात् मुक्त लोक है।
गरीब, सोहं जाप अजाप है, बिन रसना होइ धुन्न।
सतगुरू दीप समीप है, नहीं बस्ती नही सुन्न ।।88।।
सोहं बीज मंत्र अजपा जाप है जो बिना रसना के
सुर्ति की धुनि से चलता है। ऐसा
सुमिरन करने वाले के लिए सतगुरू का स्थान अत्याधिक नज़दीक है। जहां न कोई
बसती और न ही कोई उजाड़ है अर्थात् वह स्थान ब्रह्मलोक या सत्यलोक है। जो
इस सुमिरन के जाप से प्राप्त होता है।
सुमिरन करने वाले के लिए सतगुरू का स्थान अत्याधिक नज़दीक है। जहां न कोई
बसती और न ही कोई उजाड़ है अर्थात् वह स्थान ब्रह्मलोक या सत्यलोक है। जो
इस सुमिरन के जाप से प्राप्त होता है।
गरीब, सुन्न बसती से रहित है, मूल मंत्र मन माहिं।
जहां हम सतगुरू ले गया, अगम भूमि सत ठाहिं ।।89।।
सतगुरू देव प्रभु परमात्मा सुन्न और बसती दोनों
से अलग है। मूल मंत्र अंतरात्मा
में समाया हुआ है। अंतरात्मा ही पारब्रह्म का स्वरूप है। हमारे सतगुरू
हमें ऐसे ही पारब्रह्म के सत्यलोक में ले गए हैं।
में समाया हुआ है। अंतरात्मा ही पारब्रह्म का स्वरूप है। हमारे सतगुरू
हमें ऐसे ही पारब्रह्म के सत्यलोक में ले गए हैं।
गरीब, मूल मंत्र निज नाम है, सुरति सिंध के तीर।
गैबी बानी अरस में, सुर नर धरैं न धीर।।90।।
पारब्रह्म प्रभु का नाम ही मूलमंत्र है, जो सुर्ति शब्द के घाट पर है। सुर्ति शब्द के मूल
से जो प्राणात्मा में से दिव्य वाणी प्रकट होती है उसे सुन कर देवता और मनुष्य
भी धीरज धारण नहीं करते और कोई सतगुरू का प्यारा पक्का साधक ही उसे सुन सकता है।
से जो प्राणात्मा में से दिव्य वाणी प्रकट होती है उसे सुन कर देवता और मनुष्य
भी धीरज धारण नहीं करते और कोई सतगुरू का प्यारा पक्का साधक ही उसे सुन सकता है।
गरीब, अजब नगर में ले गया, हम कूं सतगुरू आन।
झलकै बिंब अगाध गति, सूते चादर तान ।।91।।
सतगुरू देव जी हमें मृत्य लोक से अजब नगर में
ले गए। जहां का नज़ारा अद्भुत है।
वहा ह्म तेज पुण्ज के प्रकाश से झिलमिल-झिलमिल हो रही है। हम उस नज़ारे को देखकर
वहां चादर ओढ़ कर सो गए अर्थात् उस ब्रह्म लोक
वहा ह्म तेज पुण्ज के प्रकाश से झिलमिल-झिलमिल हो रही है। हम उस नज़ारे को देखकर
वहां चादर ओढ़ कर सो गए अर्थात् उस ब्रह्म लोक
के आनन्द में लीन हो गए।
गरीब, अगम अनाहद द्वीप है, अगम अनाहद लोक।
अगम अनाहद गवन है, अगम अनाहद मोख ।।92।।
वह ब्रह्मलोक ऐसा द्वीप है जो अगम अनहद उस लोक
की महिमा को जाना नहीं
जा सकता। वहां का मार्ग भी अगम-अनाहद है और मोक्ष भी अगम अनाहद है।
जा सकता। वहां का मार्ग भी अगम-अनाहद है और मोक्ष भी अगम अनाहद है।
गरीब, सतगुरू पारस रूप हैं, हमरी लोहा जात।
पलक बीच कंचन करैं, पलटैं पिंड रू गात।।93।।
सतगुरू देव जी का उपदेश पारस रूप है। हमारा दिल लोहे की तरह
कठोर है।
सतगुरू का उपदेश पारस रूप जब हमारे दिल में धारण होता
है तो एक पलक में यह सोने की तरह शुद्ध बन जाता है अर्थात् मुक्ति
का अधिकारी बन जाता है। सतगुरू के उपदेश से प्राणी का जीवन पलट जाता है।
सतगुरू का उपदेश पारस रूप जब हमारे दिल में धारण होता
है तो एक पलक में यह सोने की तरह शुद्ध बन जाता है अर्थात् मुक्ति
का अधिकारी बन जाता है। सतगुरू के उपदेश से प्राणी का जीवन पलट जाता है।
गरीब, हम तो लोहा कठिन है, सतगुरू बने लुहार।
जुगन जुगन के मोरचे, तोड़ घड़े धणसार ।।94।।
सतगुरू जी कहते हैं कि हमारा दिल कठोर लोहे की
तरह है जिसे जंग रूपी मैल लगी
हुई है। सतगुरू जी ऐसे कुशल लोहार हैं जो हमारे मन को उपदेश से शुव करते हैं
और युगों-युगों से मन पर जमी हुई मैल को अपने उपदेश से दूर कर देते हैं।
सतगुरू जी का उपदेश प्राणी के मन को सोने की तरह शुव बना देता है।
हुई है। सतगुरू जी ऐसे कुशल लोहार हैं जो हमारे मन को उपदेश से शुव करते हैं
और युगों-युगों से मन पर जमी हुई मैल को अपने उपदेश से दूर कर देते हैं।
सतगुरू जी का उपदेश प्राणी के मन को सोने की तरह शुव बना देता है।
गरीब, हम पशुवा जन जीव हैं, सतगुरू जाति भृंग।
मुरदे से जिंदा करै, पलट धरत हैं अंग ।।95।।
हम पशु समान अज्ञानी जीव, कीट-पतंगे की मानिन्द हैं। सतगुरू जी का स्वभाव
भंृगी जैसा है। जैसे भृंगी छोटे कीट-पतंगों को पकड़ कर अपने घर में बंद करके
उन्हें अपनी भिन्न-भिन्नाहट सुनाकर भृंगी ही बना लेती है। इसी तरह सतगुरू
अपने उपदेश से अज्ञानी जीव को अपने जैसा बना लेते हैं। जिस तरह भृंगी
मरणासन्न कीट-पतंगों के अंगों को पलटकर अपना रूप दे देती है। इसी प्रकार
सतगुरू जी का भी ऐसा ही स्वभाव है। वह अपने सेवक
को अपने जैसा ही बना लेते हैं।
भंृगी जैसा है। जैसे भृंगी छोटे कीट-पतंगों को पकड़ कर अपने घर में बंद करके
उन्हें अपनी भिन्न-भिन्नाहट सुनाकर भृंगी ही बना लेती है। इसी तरह सतगुरू
अपने उपदेश से अज्ञानी जीव को अपने जैसा बना लेते हैं। जिस तरह भृंगी
मरणासन्न कीट-पतंगों के अंगों को पलटकर अपना रूप दे देती है। इसी प्रकार
सतगुरू जी का भी ऐसा ही स्वभाव है। वह अपने सेवक
को अपने जैसा ही बना लेते हैं।
गरीब, सतगुरू सिकलीगर बने, यौह तन तेगा देह।
जुगन जुगन के मोरचे, खोवै भ्रम संदेह ।।96।।
सतगुरू लोहार जैसे हैं हमारा शरीर तलवार के
लोहे जैसा है। जिस तरह लुहार तलवार
के लोहे को सान पर चढ़ा कर चमका देता है और उसके उपर से सारा जंग उतार
देता है, इसी तरह सतगुरू जी उपदेश और अपनी कृपा दृष्टि द्वारा
सेवक के मन को शुद्ध कर देते हैं।
के लोहे को सान पर चढ़ा कर चमका देता है और उसके उपर से सारा जंग उतार
देता है, इसी तरह सतगुरू जी उपदेश और अपनी कृपा दृष्टि द्वारा
सेवक के मन को शुद्ध कर देते हैं।
गरीब, सतगुरू कंद कपूर है, हमरी तुनका देह।
स्वांति सीप का मेल है, चन्द चकोरा नेह ।।97।।
सतगुरू जी केले में कपूर की तरह है और हमारी
देह केले के पत्ते के समान है। जिस
तरह केले में कपूर हल्का और शुव होता है इसी तरह सतगुरू जी का शुव स्वरूप है।
जिस तरह स्वाति नक्षत्र में सीप में बूंद के पड़ने से मोती पैदा हो जाता है इसी
तरह सतगुरू के मिलाप से प्रभु प्रकट हो जाते हैं। जिस तरह चकौर पक्षी का
चंद्रमा से प्यार है इसी तरह का प्रेम होने से
ही सतगुरू प्राणी को मिलते हैं।
तरह केले में कपूर हल्का और शुव होता है इसी तरह सतगुरू जी का शुव स्वरूप है।
जिस तरह स्वाति नक्षत्र में सीप में बूंद के पड़ने से मोती पैदा हो जाता है इसी
तरह सतगुरू के मिलाप से प्रभु प्रकट हो जाते हैं। जिस तरह चकौर पक्षी का
चंद्रमा से प्यार है इसी तरह का प्रेम होने से
ही सतगुरू प्राणी को मिलते हैं।
गरीब, ऐसा सतगुरू सेईये, बेग उधारे हंसं।
भौसागर आवै नहीं, जौरा काल विधंस ।।98।।
ऐसे समर्थ सतगुरू की सेवा और उपासना करनी चाहिए
जो जीवात्मा का तुरन्त उदार
कर दे। फिर वह जीवात्मा भवसागर में बार-बार न आए। यम और मृत्यु
उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके।
कर दे। फिर वह जीवात्मा भवसागर में बार-बार न आए। यम और मृत्यु
उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके।
गरीब, पट्टन नगरी घर करै, गगन मंडल गैनार।
अलल पंख ज्यूं संचरे, सतगुरू अधम उधार ।।99।।
ऐसे समर्थ सतगुरू की शरण लेनी चाहिए जो
अललपक्षी की तरह गगन मण्डल में
अर्थात् उतम नगरी में रहता है और नीच (महापापी) का भी उद्धार करने में समर्थ है।
अर्थात् उतम नगरी में रहता है और नीच (महापापी) का भी उद्धार करने में समर्थ है।
गरीब, अलल पंख अनुराग है, सुन्न मंडल रहैं थीर।
दासगरीब उधारिया, सतगुरू मिले कबीर ।।100।।
बन्दीछोड़ गरीबदास साहिब जी कहते हैं कि सतगुरू
जी का अपने हंसों के साथ इसी तरह
का प्रेम है जिस तरह अललपक्षी का अपने बच्चे के साथ प्रेम होता है। ऐसे सतगुरू
जी कबीर साहिब महाराज जी हमें मिले हैं जो सुन्न मण्डल में रहते हैं। उन्होंने
अपने प्रेम के बल से हमारा उवार किया है।
का प्रेम है जिस तरह अललपक्षी का अपने बच्चे के साथ प्रेम होता है। ऐसे सतगुरू
जी कबीर साहिब महाराज जी हमें मिले हैं जो सुन्न मण्डल में रहते हैं। उन्होंने
अपने प्रेम के बल से हमारा उवार किया है।
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ReplyDeleteSatguru dev ki jay
ReplyDeleteअललपक्षी के बारे में जानकारी दें? यह कहां रहता है ?
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