Tuesday, December 19, 2017

स्वामी लाल दास जी महाराज रकबे वाले

सत्यपुरुष सद्गुरु कबीर साहिब जी के पूर्णावतार बंदीछोड़ गरीबदास साहिब जी के अनुयायी परमविरक्त सन्त शिरोमणि धन-धन स्वामी ब्रह्मसागर जी भूरीवाले के अनुयायी स्वामी लालदास जी का जन्म भारतवर्ष के
 पंजाब प्रांत के जिला लुधियाना के अन्तर्गत "रकबा" ग्राम में हुआ था। पिता जी श्री कान्ह सिंह और माता जी नाम प्रतापकौर था। आपका जन्म संवत् 1946 पौश सुदी द्वितीया का था। आपका बचपन का नाम मुन्शी सिंह था। आप बचपन से साधु सेवी और सत्संगी प्रवृति के थे। आपकी आरम्भ से ही गृहस्थ कार्यों में रूचि नहीं थी। आप हर समय आत्म-उद्धार की बातों में मग्न रहते थे। आप सुख की खोज में कई तीर्थों में गए परन्तु वहाँ सुख नहीं मिला। आप किसी योग्य गुरू की खोज में लग गए।आप कई डेरे वालों के पास भी गए परन्तु आपको कोई योग्य गुरू नहीं मिला। काफी समय के बाद आपको लोगों द्वारा पता लगा कि कोई संत भूरीवाले हैं जो पूर्ण त्यागी और भगवान के सच्चे कृपा-पात्र हैं ऐसा सुनकर आपके मन में उनका दर्शन करने का संकल्प उठा। कुछ दिनों बाद संयोग से संत भूरीवाले रकबा गांव में ही एक झाड़ी में आकर बैठ गए। यह घटना संवत् 1977 की है। एक दिन आप अपने कई साथियों के साथ भूरीवालों के दर्शन करने गए। जब आप महाराज भूरीवालों के पास पहुंचे, तो उनसे कुछ दूरी पर आपने अपना जोड़ा (जूती) खोल दिया और नमस्कार की। आपके साथियों ने बिना जोड़ा खोले नमस्कार की। आपका मर्यादा पूर्ण आचरण देखकर संत भूरीवाले बड़े प्रसन्न हुए।

 आपने संत भूरीवालो का आशीर्वाद लिया और कहा कि आज हमें योग्य गुरू मिल गया। उसी समय संत भूरीवालों ने भी कहा था कि हम भी बच्चू तेरी खोज में आए थे। आप पर भूरीवालों का ऐसा प्रभाव था आप भूरीवालों के दर्शन करने जहां-तहां जाने लगे। 1980 में आप ब्रह्मी गांव में महाराज भूरीवालों से सन्यास लेने पहुंचे। परन्तु भूरीवाले मना करते रहे। आप कोई 8 दिन तक खाना-पीना छोड़कर महाराज भूरीवालों के पास बैठे रहे और सन्यास की जिद करते रहे। रकबा गांव के ही कुछ भक्तों ने आकर आपकी जिद को देखते हुए महाराज भूरीवालों से प्रार्थना की कि इस बच्चे को आप सन्यास दे दें वरना यह प्राण त्याग देगा। भक्तों की प्रार्थना और आपकी इच्छा को देखते हुए महाराज भूरीवालों ने आपको सन्यास दे दिया और आपका नाम लालदास रखा। सन्यास के बाद आप काफी समय तक गुरू चरणों में रहकर सेवा करते रहे। बीच-बीच में आप भूरीवालों से आज्ञा लेकर मण्डलियों में व तीर्थां में भी चले जाते थे। आप स्वामी अनन्तप्रकाश जी की मण्डली में रहे और उनसे विचार-चन्द्रोदय व विचार सागर पढ़ने लगे। परन्तु पढ़ने के बजाय आपका मन भजन में ज्यादा लगता था। एक समय बरनाला (जिला संगरूर) में अखण्ड पाठ का भोग पड़ रहा था। वहां महाराज भूरीवाले ताबे पर बैठे थे और लाल दास जी चंवर कर रहे थे। भूरीवालों ने आपसे कहा कि हमारा शरीर जाने वाला है, हमारे बाद तुम्हें इन लोगों का ख्याल रखना है। आपने कहा सतगुरू जी हमारे अन्दर इतनी शक्ति नहीं है कि मैं इस महान कार्य को कर सकूं। भूरीवालों ने कहा कि शक्ति तो हमारी ही कार्य करेगी तुम्हें तो हमने आगे ही करना है। महाराज जी के वचनानुसार आप लोगों को सद्मार्ग दिखलाने लगे। महाराज भूरीवालों के महाप्रायण के बाद महाराज की मण्डली बिखरने लगी। सभी संतों ने विचार किया कि मण्डली को संगठित करने के उद्देष्य से किसी महापुरूश को संत भूरीवालों का उत्तराधिकारी बनाया जाय। अंत में सम्प्रदाय के सभी संत-भक्तों ने फेसला किया कि भूरीवालों की प्रथम बरसी पर गद्दीनशीनी का आयोजन संपन्न किया जाए।

अतः निष्चित तिथि पर (संवत् 2005) लुधियाना में संत-संगत इक्कठे होने लगे। उत्तराधिकारी का चयन करने के लिए विचार विमर्श हुआ। सभी लोग सन्त भूरी वालों के सबसे बड़े शिष्य वीतराय परम तपस्वी संत स्वामी देवादास के पास पहुंचे और उनसे प्रार्थना की कि आप इस पदवी पर आसीन होकर लोक कल्याण करें। देवादास जी ने इन्कार कर दिया परन्तु लोगों ने सोचा कि सुबह इनको राजी कर लेगें। सुबह जब लोगों ने देवादास जी की कुटिया देखी तो कुटिया खाली मिली। संत देवादास जी स्वतंत्र प्रवृति के संत थे, सो रात को ही अपने वस्त्र उठाकर कहीं चले गये। अब फिर वही समस्या खड़ी हो गई। चद्दर देने का समय नजदीक आने लगा। सभी संतो को अब स्वामी लालदास जी से आशा थी कि वे इस जिम्मेवारी को वहन कर लेंगे परन्तु लालदास जी भी मुक्त रूप से ही भजन करना चाहते थे। जब अखण्ड पाठ का भोग लगा, उस समय गरीबदासी सम्प्रदाय और दूसरे सम्प्रदायों के करीब 700 महात्मा उपस्थित थे। जब रस्म के समय कोई तैयार नहीं हुआ, तो अवधूत स्वामी नारायणदास जी ने स्वामी लालदास जी को जबरदस्ती ताबे पर बैठा दिया। उसी समय सारी संगत ने 'जय बन्दी छोड़’ का जयकारा लगा दिया और हमारी प्रमुख गद्दी सर्वोच्य पीठ श्री छुड़ानी धाम के तत्कालिन श्रीमहन्त गंगासागर जी ने उठ कर लालदास जी को चन्दन का तिलक कर दिया और चद्दर उढ़ा दी। लोग फूलों की वर्षा करने लगे। संत ब्रह्मचारी डेहलों वाले तो इतने खुश हुए कि कहने लगे कि "आज हमारे बूटे की जगह बूटा लग गया है"। महाराज श्री की चद्दर के बाद आप उनकी आज्ञानुसार (लगभग 27-28 वर्श) कण्डी, दूणी, बीत के इलाकों में पैदल घूमकर लोगों का संत गरीबदास जी की वाणी के अनुसार जीवन यापन करने की शिक्षा देने लगे। आपके उपदेशों से प्रभावित होकर वहां हजारों व्यक्तियों ने हुक्का, तमाखू, मांस, मदिरा आदि व्यसन छोड़ दिए। विभिन्न गावों में आपके भक्तों ने कुटियाएं बनवाई जहाँ पर साधु संतो की सेवा होती रहती है और गरीबदास जी की वाणी के पाठ होते हैं। आप नैनीताल और राजस्थान में भी लोगों को धर्म उपदेश देने जाया करते थे।  आप के भक्तों ने हरिद्वार में विशाल आश्रम ब्रह्मनिवास के नाम से बनवाया। टपरिया खुर्द, वृन्दावन में भी आपके नाम से मंदिर बनवाया। आप राग द्वेश से रहित थे।

 किसी भी सम्प्र्रदाय का साधु आता, आप उसकी बहुत सेवा करवाते थे। इस प्रकार आप जीवों को सुख का मार्ग दिखलाते हुए सन् 1975 श्रावण अश्टमी को लुधियाना में इस नष्वर शरीर का त्याग कर निर्वाण गति को प्राप्त हुए। आपके पार्थिव शरीर को पूरे सम्मान के साथ आपकी इच्छानुसार हरिद्वार ले जाया गया और वहां संत भक्तों की अपार भीड़ ने जय-जयकार करते हुए आपका शरीर गंगा मैया को अर्पित कर दिया गया

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