Thursday, December 14, 2017

सूरज गायत्री

यह सूर्य भगवान की उपासना मय वाणी है। सुबह के समय जब सूर्योदय
होता हैउस समय सूर्य के दर्शन करते हुए इस वाणी का उच्चारण किया जाता हैः
उगमंत सूरंवरषंत नूरंबाजंत तूरं।
सकल लोक भरपूरंकाल कंटक दूरं ।।1।।
सत्गुरू गरीबदास महाराज जी कहते हैं कि जब सूर्योदय होता है तो सृष्टि में
उसके प्रकाश की किरणों के माध्यम से नूर बरसता है। प्रभु के पूजा स्थलों पर

शंखघड़ियाल आदि बाजे बजते हैं। समस्त संसार में सूर्य देव का प्रकाश
फैलने से उजाला हो जाता है। काल द्वारा दिए जाने वाले दुःख भी सूर्य 
देव की उपासना से दूर हो जाते हैं। इस कारण सुबह के समय
 सूर्योंपासना करना बड़ा पवित्र कार्य है।

सत्य सुकृत श्री सूरज बाला। जप तप संजम के रखवाला ।।2।।
हाथ खड्ग गल पुष्प की माला। कानों कुंडल रूप विशाला ।।3।।
सूर्यदेव की उपासना सत्य और पुण्य देने वाला शुभ कार्य है। जो सूर्य देव की
पूजा करता है उसके जपतप और संयम की सूर्य देव रक्षा करते हैं। सूर्य देव का
बहुत सुन्दर और विशाल मुख है। कानों में कुण्डल शोभा दे रहे हैंगले में फूलों
की माला है। असुरों का नाश करने के लिए हाथ में तलवार है।

ऋध्दि सिध्दि दीजो कर प्रतिपाला। मोक्ष मुक्ति के तुमहि दयाला ।।4।।
हम पर सूरज होय कृपाला। दास गरीब चितावन वाला ।।5।।
सूर्य के रूप में ही साहिब प्रभु संसार के प्राणियों की सेवा करते हैं। उनके
आदेशानुसार ही सूर्य उदय और अस्त होता है। इसलिए सत्गुरू गरीबदास जी
महाराज सूर्य के रूप में भी साहिब प्रभु को देख रहे हैं। इसीलिए वाणी में कहते हैं
कि हे सूर्य देव! आप कृपा करके ऋध्दि सिध्दि  से हमारा पालन करना क्योंकि
आप ही मोक्ष देने वाले दयालु हैं। आप सदैव हम पर कृपा करना। मैं
आपका ध्यान करता हं।
नोट: उपरोक्त वाणी में सत्गुरू गरीबदास जी महाराज प्राणी को सूर्य देव
की उपासना करने की प्रेरणा देते हैं।

-: मुक्ति छंद :-
पांन अपांन समानादंमन इन्द्री फल अस्थिरं।
नासाग्रे निरालम्भंचीन्हते द्वादस दलं।।
सत्गुरू गरीबदास जी कहते हैं कि प्राण वायु और अपान वायु इन दोनों को
सम करने से मन और इन्द्रियां स्थिर हो जाती हैं। जो श्वास हहृय  से बाहर की ओर
जाता है वह प्राण वायु हैजो वापिस हहृय  में आता है वह अपान वायु है। ये दोनों
वायु गर्म और ठण्डे हैं। ये दोनों वायु हहृय  से बाहर बारह अंगुल तक चक्कर लगाते
हैं। योग लिया के द्वारा इन दोनों को समान किया जाता है। मन और इन्द्रियों के
वश में होने से नाक के अग्र भाग के पर दृष्टि जमा कर निरालम्भ प्रभु का ध्यान
किया जाता है। श्वासों की गति स  हहृय  में ध्यान स्थिर करने से प्रभु का अनुभव
होता है। गीता गायत्री वाणी में योगलिया से श्वासों की खोज करने से प्रभु मिलते
हैं यही इसका अर्थ है।

अगर मूले न मूर्छामूर्छा सः जीवजन्मं।
जीवजन्मं सः भ्रम भूतेभ्रम भूते सः कर्म कालं,
कर्मकालं सः बिनास्ती ।।1।।
सत्गुरू जी कहते हें कि हे प्राणी! यदि तू मूल स्वरूप पारब्रह्म परमेश्वर का
ध्यान नहीं किया तो तेरी मन-बुवि मूर्छित हो जाएगी। प्रभु के ध्यान से दूर होकर
प्राणी के मन और बुवि विचलित हो जाते हें। इस तरह विचलित होने से ही जीव को
आगे फिर नीच योनियों में जन्म धारण करना पड़ता है। नीच योनि में जन्म धारण
करके उसके मन में भ्रम भूत बस जाते हैं। भ्रम भूतों के बस जाने से प्राणी काल
और कर्मों के चक्कर में आ जाता है। काल और कर्मो के साथ ही उसका विनाश
होता है।

            हर हर हर उचार। शिव योगी गति अपार।
महादेव कैलाश कुन्ज। सुर नर मुनि जनसिर करें पुन्ज।।
दास गरीब धर शिव का ध्यान। भक्ति मुक्ति जिन दीन्ही दान ।।2।।
इस वाणी में सत्गुरू जी योग लिया का वर्णन करते हैं। योग लिया में
शिरोमणि भगवान शिव शंकर योगी हैं जो कल्याण स्वरूप हैं इस कारण सत्गुरू
जी कहते हैं कि हे जीव! तू पापों को हर लेने वाले हरि का नाम उच्चारण कर। ऐसे
शिव योगी की गति अपार है। शिव महादेव कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं।
देवतामनुष्यमहात्मा जन उनके शीश पर चंवर करते हैं। ऐसे कल्याण स्वरूप
शिव योगी का ध्यान कर जो भक्ति और मुक्ति के दाता हैं।



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